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कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी, बांग्ला एवं संस्कृत आदि भाषाओं के जानकार और इन भाषाओं में रचित साहित्य के गहरे पारखी विद्वान तथा गीत ,नवगीत के सुमधुर ही नहीं बल्कि जनगीतों के ओजस्वी गायक भी थे । जिन लोगों ने उन्हें विभिन्न साहित्यिक मंचों से गीत-नवगीत-जनगीत गाते , काव्यपाठ करते या साहित्यिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर व्याख्यान देते हुए सुना है, उनके लिए राजेन्द्र जी को सुनना एक अनुभव रहा है । कला-पारखी कवि यतीन्द्र मिश्र ने सही लिखा है कि “एक गाया जाने वाला पद अथवा गाया जा चुका गीत असीमित सन्दर्भ प्रक्षेपित करता है। उस घट चुके समय में गुंजरित शब्द, शब्द मात्र नहीं रह जाता। शब्द से थोड़ा ऊपर उठकर कुछ संभावनाओं के द्वार खोलता है ।”(गिरिजा, पृ.24) राजेन्द्र जी एक अच्छे अनुवादक भी थे जिसका प्रमाण है उनकी Beach Grove Books,Inc, Canada से प्रकाशित उनकी स्वानूदित पुस्तक ‘SO HERE I STAND’ (A selection of anti-slogan poems translated from Hindi original by the poet).
यदि हममें से किसी के पास उनके गायन/व्याख्यान के कैसेट/ रिकार्ड/ प्रकाशित – अप्रकाशित रचनाएं आदि हैं, तो उसे हमें हिन्दी जगत के सामने लाने का कष्ट उठाना चाहिए. साथ ही हम सब को यथाशीघ्र कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह रचनावली / ग्रंथावली के प्रकाशन के लिए भी प्रयास करना चाहिए ।
हिन्दी नवगीत के रचना-वैविध्य एवं स्वीकृति-संघर्ष में राजेन्द्र प्रसाद सिंह की भूमिका अविस्मरणीय है । उपर्युक्त विषय पर विचार करते हुए सर्वप्रथम हमारा ध्यान कवि की पहली काव्यकृति ‘भूमिका’(1950) की ओर आकृष्ट होता है जिसके दोनों फ्लैप पर ‘निराला’ एवं सुमित्रानन्दन पन्त की लम्बी, महत्वपूर्ण सम्मतियाँ छपी हैं ।
‘भूमिका’ में आदि से मध्य तक राष्ट्रीय भाव-धारा की, प्रगतिशील और यथार्थवादी वैचारिक कविताएं हैं, जिनमें भी ‘आवरण’ ‘प्रकाश-पुंज’ है । और ‘प्रगति-गीत’ नए गीत-प्रयोग हैं और कृति के उत्तरार्द्ध में युवा प्रेमी के मनःसंघर्ष, अंतर्द्वंद और प्रेम की आकांक्षा से महत्वाकांक्षा तक को समाहित किए लगभग पचास गीत हैं । 1950 ई. में प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह की इस पहली काव्यकृति की समीक्षा करते हुए डॉ॰धर्मवीर भारती ने लिखा था- “मुझे स्मरण नहीं पड़ता कि किसी भी तरुण कवि कि प्रथम काव्य कृति में इतनी हुंकार सबलता और प्रौढ़ता रही हो ।”
डॉ॰ भारती ने कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह की रचनाओं में मुख्य रूप से दो-तीन बातों को रेखांकित किया है- “सबसे पहली बात यह है कि उनकी भाषा और उनके विचारों में सस्ती भावुकता और चटपटा आवेश न होकर सशक्त हुंकार और प्रौढ़ बल है । ‘सिंहावलोकन’ में एक अजब-सा उन्मेष है, एक विद्रोह-भरी चुनौती है और विजय के विश्वास का अनोखा दर्प है-
“जागा किशोर आलोक सिंह गिरि गुहा फोड़,
निकला बनकर यौवन, पाषाण-कपाट तोड़,
तम के नभचुम्बी अद्रि-भाल पर गरज उठा,
दिशि-दिशि की काली जीर्ण मेखलाएं मरोड़।“
-दूसरी बात यह है कि उनमें आत्मदृष्टि नहीं, युगदृष्टि का प्राधान्य है । जिस संक्रांति के युग में उन्होंने अपनी कलम उठाई है उसके संकट, उसकी जर्जरता, उसकी उलझनों से वे परिचित हैं और उनकी विकृतियों से लड़ने के लिए कटिबद्ध हैं ... इन्हीं गीतों की भूमिका में आगामी मानवता अवतरित हो, इसके लिए वह सचेष्ट हैं । मानवता के प्रति उसमें अदम्य विश्वास है । उनके गीतों में इतिहास के कारवां गुजरते नज़र आते हैं और दिग्विजय, अकाल, रक्तपात, युद्ध, अंधकार और इन सबों को चीर कर भी जिन्दा रहने वाली और अपना सतत विश्वास करने वाली मानवता की विजय का वह उल्लास भरा गायक है ।”
राजेन्द्र प्रसाद सिंह की रचनाओं में भौतिकवाद व आदर्शवाद के समुचित समतोल को रेखांकित करते हुए डॉ॰ भारती ने आगे लिखा है- “मार्क्सवाद ने हमें इतिहासों में विकसित होती हुई मानवता का परिज्ञान कराया है, हमारी परम्परागत संस्कृति ने हमें मानवता के मनोगत मूल्यों का महत्व सिखाया है और आज का युग हमें दोनों के जिस पर स्वस्थ समन्वय की ओर प्रेरित कर रहा है, राजेन्द्र जी की कविता उस दिशा में दूर तक जा चुकी है।”
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हिन्दी गीतकाव्य के इतिहास में मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी राजेन्द्र प्रसाद सिंह (12 जुलाई, 1930 - 8 नवंबर, 2007) नवगीत के प्रवर्तक तथा एक बड़े कवि के रूप में जाने जाते हैं। जमींदार परिवार में जन्म लेने (जिनमें से ज्यादातर ज़मीन-जायदाद उनके जन्म के पहले से तरह –तरह की मुक़दमेबाज़ी में फँसी थी) और मुजफ्फरपुर जैसे एक छोटे-से शहर में आजीवन रहने के
चलते वे हिन्दी जगत की उपेक्षा एवं कई बार येन-केन-प्रकारेण हरदम छोटा-बड़ा पुरस्कार पाने के लिए जुगाड़ भिड़ाने और पैसा बनाने की फ़िराक में लगे तथाकथित साहित्यिकों के द्वारा उपहास के शिकार भी हुए. नामवर सिंह ने एक भिन्न सन्दर्भ में एंगल्स के हवाले से लेखकों की इस प्रवृत्ति को 'टुटपुंजिया मध्यवर्गीय जलन' कहा है । गौरतलब है कि सामंत या दरिद्र परिवार में पैदा होना न तो किसी व्यक्ति का अपना चुनाव होता है न ही इसकी वजह से वह अनिवार्यत: सामंती प्रवृत्तियों या सर्वहारा चेतना का वाहक होता है । हिन्दी के विद्वान प्रगतिशील-जनवादी आलोचकों को शायद याद दिलाना ज़रूरी हो कि जहाँ खुद कार्ल मार्क्स ने ‘दुराग्रह से मुक्ति को सच्ची आलोचना की पहली शर्त’ माना है वहीं रेमण्ड विलियम्स जैसे मार्क्सवादी आलोचक ने भी साहित्यिक कृतियों के रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव की मीमांसा के क्रम में रचनाकार की सामाजिक स्थिति और उसकी रचनाओं को सीधे-सीधे जोड़कर देखने से पैदा होने वाले सरलीकरण के खतरे को रेखांकित किया है।
बिहार के ज़मींदारों व सामंतों के बीच कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह की छवि एक सामंत-विरोधी वामपंथी बुद्धिजीवी और साहित्यकार की थी, जबकि हिन्दी के कुछ तथाकथिक प्रगतिशील एवं जनवादी विद्वान पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को संदेह की नज़र से देखते थे। ऐसे में कवि इक़बाल की याद न आए, यह मुमकिन नहीं :
ज़ाहिदे-तंग- नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
काफ़िर ये समझता है मुसलमां हूँ मैं ।
संभवत: 1985-86 में पटना साइंस कॉलेज के सभागार में ‘जनसंस्कृति मंच’ के एक कार्यक्रम में पहली बार मैंने उन्हें ‘भैया,कूदे उछल कुदाल हँसिया बल खाए’ जनगीत गाते सुना, जिसका सभागार में जादुई असर हुआ और हौल तालियों की गड़गड़ाहट भर गया । उस दिन मंच पर गोरख पांडे भी मौजूद थे , जिन्होंने ‘सुतल रहलीं सपन एक देखलीं’ जनगीत गाया था। ऐसे जनगीतों को ‘लोकगीतों की पैरोडी’ बताने वाले आलोचकों को अपने तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इनके महत्व पर पुनर्विचार करना चाहिए।
साहित्यिक हलकों में बारहा प्रचलित व्यक्तिगत निंदा-शिकायत पर मौन साध लेने वाले कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह मुज़फ्फरपुर में बाहर से आनेवाले साहित्यकारों के आतिथ्य, स्थानीय साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों एवं शब्द्कर्मियों पर जिस तरह दिल खोल कर खर्च करते थे उसके मद्देनज़र उन्हें मुजफ्फरपुर का भारतेंदु हरिश्चंद्र कहना सही होगा । कहने की ज़रूरत नहीं कि उनके इस अतिरिक्त साहित्यप्रेम से परिवार के लोग बहुत खुश नहीं रहते थे।
राजेन्द्र जी ने 'नयी कविता' के समानांतर रचे जा रहे गीतों की भिन्न प्रकृति एवं रचना विधान को रेखांकित करने वाले नए गीतों के प्रथम संकलन 'गीतांगिनी' (1958) का संपादन किया और उसकी भूमिका में 'नवगीत' के रूप में नए गीतों का नामकरण एवं लक्षण निरूपित किया। कालान्तर में अनेक कविता संग्रहों (भूमिका, मादिनी, दिग्वधू,संजीवन कहाँ, डायरी के जन्मदिन, शब्दयात्रा, प्रस्थानबिंदु इत्यादि) के साथ-साथ उनके कई स्वतन्त्र नवगीत संग्रह ('आओ खुली बयार', 'रात आँख मूँद कर जगी', 'भरी सड़क पर' आदि ) भी प्रकाशित हुए और जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने अनेक जनगीतों की भी रचना की जो 'गज़र आधी रात का' एवं 'लाल नील धारा' के नाम से प्रकाशित हैं. बावजूद इसके पारंपरिक ही नहीं, बल्कि प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा की दुंदुभि बजानेवाले आलोचकों के ने भी इन कृतियों की कोई ख़ास नोटिस नहीं ली । पुन: याद आते हैं नामवर जी, जिन्होंने लिखा है कि ‘नए जनवादी लेखन में आलोचना-बुद्धि का अभाव नहीं, बल्कि अतिरेक है. यह अतिरेक कभी-कभी शत्रुओं से अधिक मित्रों को – यहाँ तक कि अपने आपको भी काट बैठता है ।’
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