उड़ गए पखेरू
अब उजाड़ वीराने में
खुद को बहलाती हूँ
सूख गया है नीर
फ़िर भी
नदी तो कहलाती हूँ।
लहरों की चंचलता
थिरकन, चपलता
अब भी है चस्पा
इस दमकती रेत पर
उन अवशेषों को देख
जी उठती हूँ।
कुछ स्वार्थी, समर्थ हाथ
बढ़ चले हैं रेत की ओर
देख रही हूँ, तड़प रही हूँ
मेरी स्मृतियों से
चिन रहे अपने मकान
और मैं निस्सहाय
देख रही हूँ लाचार
निशब्द, निष्प्राण।
कूल…
Posted on June 23, 2013 at 11:22am — 13 Comments
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आप शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी हैं जल्दी से कलम उठाओ और कुछ पंक्तियाँ उकेर कर ओ बी ओ पर साझा कर दो बस!
धन्यवाद D P Mathur जी ।
शुभ दिन
आदरणीया सुशीला जी ओ बी ओ पर आपका स्वागत है ।
सभी सुधि जनों को सुप्रभात। आप सबसे जुड़ कर बहुत प्रसन्न हूँ और आशा करती हूँ कि OBO और इसके प्रबुद्ध सदस्यों से काफ़ी कुछ सीखने को मिलेगा।