उड़ गए पखेरू
अब उजाड़ वीराने में
खुद को बहलाती हूँ
सूख गया है नीर
फ़िर भी
नदी तो कहलाती हूँ।
लहरों की चंचलता
थिरकन, चपलता
अब भी है चस्पा
इस दमकती रेत पर
उन अवशेषों को देख
जी उठती हूँ।
कुछ स्वार्थी, समर्थ हाथ
बढ़ चले हैं रेत की ओर
देख रही हूँ, तड़प रही हूँ
मेरी स्मृतियों से
चिन रहे अपने मकान
और मैं निस्सहाय
देख रही हूँ लाचार
निशब्द, निष्प्राण।
कूल पर हैं शूल
शेष झाड़-झंखाड़
सूख गए हैं हरियल गाछ
पीत तृण हैं, सूखी घास
मिट रहे हैं चिन्ह जीवन के
जो साक्षी थे मेरे होने के।
मेरी रेत की नींव पर
खड़ा है आलीशान मकान
घुमावदार जिसके कंगूरे
रूआबदार हैं जिसके छज्जे
जा बैठा है जिन पर
मेरा प्राण-प्रिय पखेरू
चुगता है दाना प्रेम से
गृहस्वामिनी के सुकोमल हाथों से।
मैं भी नदी कहाँ?
खंदक रह गई हूँ
नहीं आता अब कोई यहाँ
न ही बाकी जीवन के निशां
खोजती हूँ जब वज़ूद यहाँ
पाती हूँ उजड़ने की दास्तां।
[मौलिक और अप्रकाशित रचना]
- सुशीला श्योराण ’शील’
Comment
आप सभी सुधि पाठकों का ह्रदय से आभार व्यक्त करती हूँ।
सादर
कविता पर आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए दिल से आभार ।
@ aman kumar जी आपकी विशेष रूप से आभारी रहूँगी यदि यह मार्गदर्शन करें कि प्रवाह कहाँ अवरूद्ध लगा आपको?
सादर
आदरणीया सुशीला जी,सुंदर व भावनात्मक रचना//हार्दिक बधाई
आदरणीया सुशीला जी नदी की पीड़ा व्यक्त करती आपकी कविता बहुत भाव पूर्ण है .बहुत आभार .
आदरणीया सुशीला जी बहुत सुन्दर! मेरी बधाई स्वीकारें!
उड़ गए पखेरू
अब उजाड़ वीराने में
खुद को बहलाती हूँ
सूख गया है नीर
फ़िर भी
नदी तो कहलाती हूँ। ……… क्या अंतर है एक स्त्री और एक माँ की पीड़ा में
रचना पर बधाई !
नदी के जज्बातो को उजागर करती रचना ..बधाई ///
आदरणीया सुशीला जी सर्वप्रथम ओ बी ओ में आपका हार्दिक स्वागत है, बहुत सी सुन्दर सुकोमल भावों से भरी बेहतरीन रचना रची है आपने अंतिम पंक्तियों तो हृदयस्पर्श कर गईं मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकारें.
अति सुंदर प्रवह के मध्य कही कही रुकबत आती रही है .....
पर भावना , और स्थिति दोनों को आपने सामने रखा है बधाई !
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