ख़ुशी के कितने लमहे हैं, जीस्त जिनसे संवारी है,
मेरे गम का मगर ये पल, मेरे जीने पे भारी है.
कोई भी ख्वाब अब आता नहीं, जो दे सुकूं मुझको,
मुलाजिम हूँ, रातों पर मेरे, अब पहरेदारी है.
जलाए कितने ही घर, कितने ही दुश्मन मिटा डाले,
नहीं आती कोई भी चीख, ये कैसी खुमारी है.
हो कोई सामने, पर बढ़ना है सर काटकर मुझको,
जिसे ठहराते हो जायज, वो जीने की बीमारी है.
मेरी जेबें भरी हैं, खूँ सने सिक्कों से अब, लेकिन,
कोई…
Added by Arvind Kumar on January 23, 2012 at 3:22pm — No Comments
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