किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,
मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।
कि जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,
मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।
यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।
बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,
समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।
न कोई रब्त है, ना गम, न कुछ बाकी तमन्नाएँ,
ये शायर शय से सारी, इन दिनों बेज़ार दिखता है।
----- अरविन्द कुमार
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
भाई जी जिसे आप तलफ्फुज के हिसाब से मामला जम सा गया बताते हैं अरूज़ के हवाले से देखा जाए तो उसी कारण से आपका शेर बहर से ख़ारिज है
कहन के हवाले से भी ग़ज़ल को और बेहतर करने की खूब गुन्जईशें हैं
मित्रों, आपने मेरी रचना को सराहा ये मेरा सौभाग्य है.
वीनस केसरी जी, न और ना की समस्या मुझे भी लगी परन्तु, तलफ्फुज के हिसाब से मामला जम सा गया . फिर भी कोई अरूज़ का दोष हो तो अवश्य बताएं . अभी ग़ज़ल की कक्षा का शिक्षार्थी हूँ , आप लोगों की रहनुमाई मिली तो ग़ज़ल मुकम्मल हो पाएगी।
अरविन्द जी बेहद शानदार ग़ज़ल ...
तगज्जुल तो जैसे हर शेर में छलका पड़ा है
मजा आ गया
एक एक शेर पर ढेरो दाद देता हूँ
किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,
मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।........ बेहद कामयाब मतला
कि जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,
मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।..... सानी ने तो कमाल ही कर दिया
यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।...... बहुत खूब
बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,
समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।.........बेहतरीन
न कोई रब्त है, ना गम, न कुछ बाकी तमन्नाएँ,
ये शायर शय से सारी, इन दिनों बेज़ार दिखता है।........... बहुत खूब ...
न को एक साथ १ और २ में बाँधना आपकी नज़र में सही है ?
बहुत खूब बेहद सुन्दर मतला हुआ है भाई जी खासकर दो शे'र तनिक अधिक पसंद आये. बधाई स्वीकारें.
किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,
मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।
यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।
बहुत सुन्दर रचना भाई साहब //हार्दिक बधाई
यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।
बहुत खूब
शुक्रिया aman kumar जी।
बहुत ही बढि़या परंतु...परंतु कि
जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,
मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।
इनका अर्थ नहीं निकाल पा रहा हूं, थोड़ा मार्गदर्शन करें
बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,
समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।
आज आपको पहेली बार पड़ने का मोका मिला अच्छा लगा !
शुक्रिया Shijju S. जी।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online