अना की कब्र पर जबसे, गुलों को बो चुके हैं हम,
हमें लगने लगा है, फिर से जिंदा हो चुके हैं हम।
उगेंगे कल नए पौधे, यकीं कुछ यूँ हुआ हमको,
ज़मीं नम हो गयी है, आज इतना रो चुके हैं हम।
उतारे कोई अब तो, इन रिवाजों के सलीबों को,
छिले कंधे लिए, सदियों से इनको ढो चुके हैं हम।
मेरे सपने अभी तक डर रहे हैं, सुर्ख रंगों से,
हथेली से लहू यूँ तो, कभी का धो चुके हैं हम।
बची है अब कहाँ, मुँह में जुबाँ औ ताब आँखों में,
बहुत पाने की चाहत में, बहुत कुछ खो चुके हैं हम।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अरविन्दजी...पूरे ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद आयी खास रूप से इस शेर के लिए तहे दिल दाद कबूल करें उगेंगे कल नए पौधे, यकीं कुछ यूँ हुआ हमको,
ज़मीं नम हो गयी है, आज इतना रो चुके हैं हम।...
ये शेर भी कमाल का लगा ..सादर
हर शेर जिंदाबाद हुआ है...
बहुत शानदार ग़ज़ल
हार्दिक बधाई अरविन्द कुमार जी
आपकी ग़ज़ल ने खुश कर दिया भाई अरविन्दजी !
विशेषकर सुर्ख़ रंगों से डरने वाले शेर ने तो बस मोह लिया है.
बहुत बहुत दाद लीजिये..
आदरणीय गिरिराज जी का कहना दुरुस्त लग रहा है. कृपया उनके कहे पर ध्यान दें भाई
शुभेच्छाएँ
आदरणीय भाई अरविन्द जी , बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है. हार्दिक बधाई .
बाद मुद्दत के ऐ दोस्त ग़ज़ल ये आपकी पढ़के ,
आप के इस हुनर के तो दीवाने हो चुके हैं हम ।
बहुत ही खूबसूरत बहुत बहुत बधाई
आदरणीय अरविन्द भाई , बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है , आपको ढेरों बधाइयाँ ॥
मेरे सपने अभी तक डर रहे हैं, सुर्ख रंगों से,
हथेली से लहू यूँ तो, कभी का धो चुके हैं हम।
बची है अब कहाँ, मुँह में जुबाँ औ ताब आँखों में,
बहुत पाने की चाहत में, बहुत कुछ खो चुके हैं हम। - ये शे र विशेष लगे ॥ बधाइयाँ ॥
छिले कंधे लिए, सदियों से इनको ढो चुके हैं हम , --
ये मिसरे को शायद व्याकरण के अनुसार गलत है ,से होने के कारण सदियों से इनको ढो रहे हैं हम , मुझे सही लगता है , ऐसा करने से रदीफ गलत हो जा रहा है , आप विद्वजनों की प्रति क्रिया का इंतिज़ार कर लीजिये , शायद सही भी हो ॥
बहुत खूब ... बधाई आप को
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