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Rohit Sharma's Blog – April 2012 Archive (4)

मुठभेड़

ताजगी का आलम

बसंत की बौछार

कोयल की कुहूक

मंजरों की मादक खूशबू

चांदनी बहती रात

मनोहर एकांत वह क्षण.

परन्तु,

बेचैन-दुःखी-निराश

वह नौजवान.

इन्तजार करता किसी के आने का

शायद किसी बहार का

प्रेम का मारा

बिचारा.

टिक....टिक...

समय बीतती रही,

पर लगे पंक्षी की तरह

जैसे कोयल की कुहूक

पत्तों की सरसराहटें...

चेहरे पर जमाने भर की खुशियाँ समेटे

मुड़ा ही था वह नौजवान कि

तीन गोलियाँ एक-एक कर

सीधा दिल…

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Added by Rohit Sharma on April 20, 2012 at 6:00pm — 4 Comments

धूल

सदियों से शोषित-दमित समाज में -

तुम्हारे पास स्पष्ट समझ है

एकदम साफ रास्ता है -

लूट के घिनौने यंत्र को बरकरार रखने में !

लूट के लिए खून बहा देने में !

लूट के खिलाफ उठी हर आवाज को कुचल डालने में !

हैरत तो यह है कि,

कितनी आसानी से सफल हो जाते हो तुम,

अपने नापाक इरादों में !

सच ! तुमको कितना मजा आता है -

अस्मत लुटी औरतों की दर्दनांक मौत में !

लोगों को आपस में ही लड़ा डालने में !

उनके बीच में ही संदेह का बीज पनपा…

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Added by Rohit Sharma on April 19, 2012 at 5:30pm — 4 Comments

कविता

कविता -

कवि कहते हैं,

होना चाहिए प्रेम प्रतिज्ञा अपने महबूब के प्रति.

वर्णन हो, उसके अंग-प्रत्यंग का

नख से शिख तक.

कलात्मकता निहित हो,

उसके सुखमय आलिंगन में !

परन्तु,

कविता एक परम्परा भी है,

मेहनतकशों के प्रति प्रतिबद्धता का भी है.

जहां यह सब नहीं होता.

कविता कल्पना में नहीं

थाने के लाॅकअप में भी हो सकता है,

जहां थानेदार की बूट लिखती है कविता, हमारे कपाड़ पर.

जहां गर्दन तोड़कर लुढ़का दी जाती…

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Added by Rohit Sharma on April 16, 2012 at 8:03pm — 6 Comments

मां

मां !

मैंने खाये हैं तुम्हारे तमाचे अपने गालों पर

जो तुम लगाया करती थी अक्सर

खाना खाने के लिए.

मां !

मैंने भोगे हैं अपने पीठ पर

पिताजी के कोड़ों का निशान,

जो वे लगाया करते थे बैलों के समान.

मां !

मैंने खाई हैं हथेलियों पर

अपने स्कूल मास्टर की छडि़यां

जो होम वर्क पूरा नहीं करने पर लगाया करते थे.

पर मां !

मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ

आखिर कयों लगी है मेरे हाथों में हथकडि़यां ?

जानती हो…

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Added by Rohit Sharma on April 16, 2012 at 1:36pm — 15 Comments

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