मां !
मैंने खाये हैं तुम्हारे तमाचे अपने गालों पर
जो तुम लगाया करती थी अक्सर
खाना खाने के लिए.
मां !
मैंने भोगे हैं अपने पीठ पर
पिताजी के कोड़ों का निशान,
जो वे लगाया करते थे बैलों के समान.
मां !
मैंने खाई हैं हथेलियों पर
अपने स्कूल मास्टर की छडि़यां
जो होम वर्क पूरा नहीं करने पर लगाया करते थे.
पर मां !
मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ
आखिर कयों लगी है मेरे हाथों में हथकडि़यां ?
जानती हो मां,
उन्होंने मुझे थाने लाकर उल्टा लटकाया.
अनगिनत डंडे लगाये मेरे पैरों पर
उन्होंने सुईयां चुभोई है मेरे शरीर में -
वे मुझस पूछ रहे थे, उन साथियों का नाम मां
जिन्होंने तुम्हारी लाज बचाई थी,
उस समय
जब मैं और मेरे पिताजी घर से बाहर थे
और घरों में धुस आये थे गुण्डे.
मां !
पुलिस ने मुझे इसीलिए गिरफ्तार किया है
कि मैं बताऊं उनलोगों का नाम.
तुम्हीं बताओ मां,
मैं कैसे उन लोगों का नाम अपने जुवां पर लाता.
मैं बेहोश हो गया था मां,
न जाने कितने सारे प्रयोग किये थे मेरे शरीर पर.
शायद करंट भी दौड़ाया था मेरी नसों में.
मां !
मुझे अफसोस है,
मैं आखिरी बार तुमसे नहीं मिल सका.
मैं आखिरी सांस गिन रहा हूँ मां.
मैं अपने विक्षत कर दिये गये शरीर को भी
नहीं देख पा रहा हूँ.
पर मां !
अब मैं चैन से मर सकूंगा.
लाल सूरज कल जरूर ऊगेगा मां,
तब लोग गायेंगे मेरे भी गीत.
कह देना तुम मेरे साथियों से -
मैंने अपने जुबां पर नहीं आने दिया है,
अपने पवित्र साथियों का नाम.
कि पुलिस मुझसे कुछ भी हासिल नहीं कर सकी.
कि मैंने बट्टा नहीं लगने दिया है,
उनके पवित्रतम आदर्श पर.
मां !
अगर मेरा बेटा जन्म ले, तो बतलाना उसको,
उसके बाप के बारे में,
कि किस तरह उसका बाप मरा था.
कि अन्तिम समय मैं उसे बेतरह याद कर रहा था.
Comment
Rohit ji ,shubhkaamnaaye ,bahut hi marmik rachna
मां !
अगर मेरा बेटा जन्म ले, तो बतलाना उसको,
उसके बाप के बारे में,
कि किस तरह उसका बाप मरा था.
कि अन्तिम समय मैं उसे बेतरह याद कर रहा था.
अनगिनत डंडे लगाये मेरे पैरों पर
उन्होंने सुईयां चुभोई है मेरे शरीर में -
वे मुझस पूछ रहे थे, उन साथियों का नाम मां
जिन्होंने तुम्हारी लाज बचाई थी,
उस समय
जब मैं और मेरे पिताजी घर से बाहर थे
और घरों में धुस आये थे गुण्डे.
मां !
रोहित जी बहुत सुन्दर ..काश सभी सपूत माँ की लाज रखें ऐसे ही और सब कुछ सह के भी माँ भारती का शीश गर्व से ऊंचा रखे ..हाँ जरूर कल सूरज निकलेगा अद्भुत रौशनी लिए .शुभ कामनाएं ..भ्रमर ५
रोहित जी ये आपकी कविता कल से पढ़ रही हूँ और जब भी मौका मिल रहा पढ़े जा रही हूँ ....
लगता ही नहीं ये लिखा गया है लग रहा है जैसे आपने इसे जिया है हरेक शब्द यहाँ रूपाकार है .वेदना जैसे हरेक शब्द के नस -३ में समा गयी है ..
बस इतना कहूँगी अद्भुत
आज रोहितजी की इस रचना ’मां’ को पढ़ते हुए बहुत कुछ मन में कुछ कौंध गया. वस्तुतः, यह रचना मात्र वह नहीं कहती जो हम पढ़ रहे हैं.
प्रिज्म का होना आश्वस्त करता है. उस प्रिज्म से हो कर गुजरती किसी उद्भ्रांत किरण का अनायास विदिर्ण हो कर विस्तृत होजाना चकित तो करता है, परन्तु, उस एकाकी जिये जा रही किरण के मंतव्य सरीखे अवयवों से विचार-विशेष को समर्पित बालक सायास खेलने लगें तो किरण के अवयवों का रंग.. आह.. ..
ऐसा आखिर होता क्यों है ? और ऐसा अक्सर होता है !
रोहित को किसी रूप में खड़ा होता हुए देख रहा हूँ. एक उत्कट संभावना मेरी बायीं ओर से निकलती हुई साफ़ दीख रही है. और हम निश्शब्द से हैं.
प्रतिकार को शब्द चाहिये, अवश्य. किन्तु, काश.. . उन शब्दों को किसी मंशा की ओट न मिली होती.
रचना पसंद करने के लिए आप सबों को धन्यवाद
mann ke dukh dard door karne hain.vande matram
रोहित जी, नमस्कार,
एक सच्चे क्रांतिकारी कि आवाज ,सुंदर रचना |
मर्मस्पर्शी औरहृदय विदारक भावों से परिपूर्ण काव्य के लिए हार्दिक बधाई रोहित जी|
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