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ताजगी का आलम
बसंत की बौछार
कोयल की कुहूक
मंजरों की मादक खूशबू
चांदनी बहती रात
मनोहर एकांत वह क्षण.

परन्तु,
बेचैन-दुःखी-निराश
वह नौजवान.
इन्तजार करता किसी के आने का
शायद किसी बहार का
प्रेम का मारा
बिचारा.

टिक....टिक...
समय बीतती रही,
पर लगे पंक्षी की तरह
जैसे कोयल की कुहूक

पत्तों की सरसराहटें...
चेहरे पर जमाने भर की खुशियाँ समेटे
मुड़ा ही था वह नौजवान कि
तीन गोलियाँ एक-एक कर
सीधा दिल को छेदती गुजर गई.
2
सुबह अखबार के पन्नों पर
छायी थी एक खबर -
‘‘एक खूंख्वार आतंकी मारा गया,
पुलिस मुठभेड़ में.’’

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 21, 2012 at 8:10pm

टिक....टिक...
समय बीतती रही, ........  ????

मुझे आश्चर्य और दुःख दोनों हुआ इस रचना को पढ़ कर. 

रोहित की ’माँ’ शीर्षक की रचना के संदर्भ में मैं बहुत कुछ कह चुका हूँ. यह पटल साहित्य हेतु साहित्यिकों का हो. किसी ’वाद’ को छद्म रूप से प्रतिरोपित करने का प्रयास उचित नहीं.

किसी रचनाकार द्वारा अपनी हर प्रविष्टि में, या पद्य हो या गद्य हो, निरंतर ’गोली’, ’खून’, ’वितृष्णा’, ’वीभत्सकारी बिम्ब’ पाठक के मन में जुगुप्सा के भाव ही जगाते हैं. कुछ देर की वाहवाही ठीक है. 

सकारात्मक सोच माहौल को प्रतिक्रियावादी नहीं सर्वसमाही और आश्वस्तिकारक बनाते हैं जिसका कि आज के समाज में सबसे ज्यादा जरूरत है.

Comment by Mukesh Kumar Saxena on April 21, 2012 at 5:17pm
kadva sach yahi to hai

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 21, 2012 at 4:39pm

bhaav me ek katu satya chhipa hai.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 21, 2012 at 10:25am

रहस्यमयी रचना ...ऐसा लग रहा जैसे केवल लिखने के लिए लिखा गया हो, रोहित जी मैं आपको और बढ़िया करने हेतु प्रेरित करना चाहता हूँ , सादर |

कृपया ध्यान दे...

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