किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,
मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।
कि जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,
मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।
यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,
शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।
बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,
समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।
न कोई रब्त है, ना गम, न कुछ बाकी तमन्नाएँ,
ये शायर शय से सारी, इन दिनों…
Added by Arvind Kumar on July 8, 2013 at 4:30pm — 11 Comments
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