सोच रही हूँ आज कौन सा गीत लिखूँ जी
आडी -तिरछी रेखाओं में भाव भरूँ जी।
मन उड़ भागा लेकर भाव के सारे पन्ने।
दिक करते हैं बोल पडौस में गव रहे बन्ने।
कभी किसी कोयलिया ने कुहु टेर लगाई ।
खुशबू पहले बौर की मुझ तक दौड़ी आई।
डाल पे झूले बैठीं सखियाँ झूल रही हैं।
मन की चिड़िया शब्द भी सारे भूल रही है।
काला कौवा बैठ मुंडेरी चीख रहा है।
आता दूर पथिक भी कोई दीख रहा है।
रात चाँदनी साज लिए लो बैंठ गई है ।
नई बहुरिया सास से…
Added by Mamta on August 19, 2015 at 3:30pm — 5 Comments
फैंसी ड्रैस का आयोजन था।वृद्धाश्रम के सभी वृद्ध तरह - तरह की वेशभूषा में सजे थे। कोई किसान,कोई सब्जी बेचने वाला,कोई पुजारी ,कोई माली तो कोई संत।
उन्हीं में से एक वृद्धा ने कटोरा हाथ में लिया व अपनी वेशभूषा के अनुरूप वह भीख माँगने लगी।
फैंसी ड्रेस का माहौल ही बदल गया। सबके हाथ पीछे हट गए,आँखे पनीली हो गईं,ह्रदय करूण भाव से भर गया ।सभी के मन के एक कोने में एक पछतावा, एक पश्चाताप सा जाग गया।सब यही सोच रहे थे ओह! ये हमने क्या कर दिया।सबकी संवेदना ने विचारों पर ताला लगा दिया ये दृश्य…
Added by Mamta on August 13, 2015 at 5:30pm — 8 Comments
सीले हुए ,पुराने अधखुले तुडेमुडे गत्ते के डिब्बों में बन्द मोमबत्तियाों को दुकानदार ने झींकते हुए बार निकाला और मन ही मन जाने क्या-क्या खुदबखुद बडबडाने लगा । उसे ऐसे परेशान होता देख खुले डब्बे के मुँह से झाँककर एक मोमबत्ती बोली,'बेचारा!' फटाक से दूसरी बोली,'क्यों तुम्हें अपने ऊपर तरस नहीं आता ! कभी सोचा भी है कि कितने साल हो गए हमें इस मौसम में बाहर आते और मौसम खत्म होने पर बिना बिके अन्दर जाते।' नहीं याद वे दिन जब हमारी ज़रूरत बहुत थी, शान बहुत थी। हर दिन हमारा प्रयोग हुआ करता था और हम कभी…
ContinueAdded by Mamta on August 12, 2015 at 9:30am — 15 Comments
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