शाम सी ना सवेरे जैसी है |
रोशनी भी अँधेरे जैसी है |
क्या बताऊ तुम्हें पता घर का,
पूरी बस्ती ही डेरे जैसी है |
वक्त गुजरा तो फ़िर नहीं लौटा,
इसकी फ़ितरत भी तेरे जैसी है |
उस मुसब्बर की कोई भी मूरत,
तेरे जैसी ना मेरे जैसी है |
हर ख़ुशी जिंदगी के आंगन में,
चार दिन के बसेरे जैसी है |
डौली दुल्हन की जो उठाने चले,
सबकी नीयत लुटेरे जैसी है |
डा. विनोद…
ContinueAdded by डॉ विनोद लवानिया on October 19, 2013 at 4:30pm — 20 Comments
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