शाम सी ना सवेरे जैसी है |
रोशनी भी अँधेरे जैसी है |
क्या बताऊ तुम्हें पता घर का,
पूरी बस्ती ही डेरे जैसी है |
वक्त गुजरा तो फ़िर नहीं लौटा,
इसकी फ़ितरत भी तेरे जैसी है |
उस मुसब्बर की कोई भी मूरत,
तेरे जैसी ना मेरे जैसी है |
हर ख़ुशी जिंदगी के आंगन में,
चार दिन के बसेरे जैसी है |
डौली दुल्हन की जो उठाने चले,
सबकी नीयत लुटेरे जैसी है |
डा. विनोद लवानिया
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
वक्त गुजरा तो फ़िर नहीं लौटा,
इसकी फ़ितरत भी तेरे जैसी है ............ वाह सुभानअल्लाह....... बधाई हो इस शानदार गज़ल के लिए आ0 डॉ. विनोद जी.....
जानदार शेर के लिए दिली दाद हाज़िर है डॉक्टर साहिब
वक्त गुजरा तो फ़िर नहीं लौटा,
इसकी फ़ितरत भी तेरे जैसी है |...बेहद कमाल का !...वाह ...अद्भुत :)
वक्त गुजरा तो फ़िर नहीं लौटा,
इसकी फ़ितरत भी तेरे जैसी है |
बहुत बढ़िया सर
सुन्दर भावो से परिपूर्ण इस ग़ज़ल पर आपको तहे दिल से बधाई |
बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है ....
वक्त गुजरा तो फ़िर नहीं लौटा,
इसकी फ़ितरत भी तेरे जैसी है |.... एक दम गुलज़ाराना ...
वक़्त रहता नहीं कहीं टिककर,
इसकी आदत भी आदमी सी है .... क्या कहने .. बधाई
आदरणीय विनोद जी ..इस बेहतरीन ग़ज़ल का ये शेर दिल को छू गया
वक्त गुजरा तो फ़िर नहीं लौटा,
इसकी फ़ितरत भी तेरे जैसी है |..हार्दिक बधाई के साथ
विनोद साहब इस शेर के लिए ढेरो दाद क़ुबूल फरमाएं ....
वक्त गुजरा तो फ़िर नहीं लौटा,
इसकी फ़ितरत भी तेरे जैसी है |
डौली दुल्हन की जो उठाने चले,
सबकी नीयत लुटेरे जैसी है |................... बहुत ही बढ़िया । बहुत बधाई आपको आ0 विनोद लवनिया जी ।
बहुत ही बेहतरीन ...उम्दा....ख्याल....//...............
हर ख़ुशी जिंदगी के आंगन में,
चार दिन के बसेरे जैसी है |...........बधाई हो................आ. विनोद साहब.....!!!
बहुत खूब, बेहतरीन रचना | बधाई
सादर
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