देहरी पर मन के
किसने रख दिए दो पाँव,
बस गया दो पल में जैसे
एक सुन्दर गाँव!
गुप्तचर आँखों ने ढूंढें
रूप के कुछ ठौर,
मन अपेक्षी हर कदम
कहता रहा, कुछ और.
कब मिले जाने इसे अब
कोई अंतिम ठांव!
चितवनों के गाँव में
बिखरे अगिन संकेत,
किन्तु जल की आड़ में
छलती गयी है रेत.
रूपसी खेलेगी मुझसे
और कितने दांव!
ले नदी सब नीर अपना
चल पड़ी किस ओर,
चंचला…
ContinueAdded by Saurabh Srivastava on August 5, 2013 at 5:44pm — 10 Comments
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