हो गगन के चन्द्रमा तुम क्यों अगन बरसा रहे
देख कर बिरही अकेला क्यों मगन मुस्का रहे
मेरी धरती ने तुम्हे आकाश पर पहुंचा दिया
तुम भटकते ही रहे अब तक न तुमने कुछ किया
आज कर लो व्यंग्य कल तुम देख कर जल जाओगे
आज हूँ परदेश में कल पार्श्व में होगी प्रिया
इसलिए आगे बढ़ो जाओ जहाँ तुम जा रहे हो
हो गगन के चन्द्रमा ...........................
विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं
कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी…
Added by Yogendra B. Singh Alok Sitapuri on September 11, 2011 at 4:05pm — 4 Comments
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