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पास आ कातिल मेरे मुझमें जान आने दे,

जान ले लेना पर थोडा तो संभल जाने दे।

 

तूँ तसव्वुर में मेरे रहा है बरसों से,

खुद को नजरों से सीने में उतर जाने दे।

 

कुछ ठहर जा कि छुपा लूँ मैं दर्द सीने का,

या तेरे सीने से लिपट कर बिफर जाने दे।

 

तुझको पाना नहीं है मेरी मंजिल,

तूँ जरा खुद में मुझको समां जाने दे।

 

अब गुजारिश है 'मुसाफिर' की खुदा से,

वो मुझे मेरे खुदा से ही मिल जाने दे।

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Comment by Gyanendra Nath Tripathi on August 30, 2011 at 10:07am

आपका आभार रवि प्रभाकर जी.

Comment by Ravi Prabhakar on August 22, 2011 at 8:10pm

आदरणीय त्रिपाठी जी,
रचना पढ़ कर यूं अहसास हुआ कि यह गजल
जनाब गुलाम अली साहिब अपने अंदाज में
बहुत बड़ी महफिल में गा रहे है। कई बार पढ़ा,
फिर भी अहसास ज्यों का त्यों है।
अनोखी रचना के लिए बधाई।

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