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::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: ©


::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: © (मेरी नयी सवालिया व्यंग्य कविता)

मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है...
नाना प्रकार के प्रेत...
भरमाते हुए...
विकराल शक्लें...
लोभ-काम-क्रोध-मद-मोह...
नाम हैं उनके...
प्रचंड हो जाता जब कोई...
घट जाता नया काण्ड कोई...
सृष्टि के दारुण दुःख समस्त...
सब दिये इन्हीं पञ्च-तत्व-भूतों ने...

लालसा...
अधिक से भी अधिक पाने की...
नहीं रहा काबू मन पे मेरे...
कोशिश...
कर देखी मैंने बहुतेरी...
मन में दिया रौशन कर लेने की...
रूह में बसा था जो ईश्वर...

कोशिश...
खोज उसे लेने की...
मिल गया बसेरा...
पर ईश्वर का कोई पता नहीं...
देख कर शायद...
लापतागंज का कोई इश्तिहार...
हो समर्थ...
कर काबू मन को...
खोज लाये कोई खोये ईश्वर को...

मगर...
फिर चढ़ेगा एक प्रेत ईश्वर पर...
फिर लगेगा इश्तिहार...
लापतागंज का...
संभवतः दौर नया है...
खुद ईश्वर की भाग-दौड़ का...

शायद...
हो गया था अहसास...
मेरे ईश्वर को...
अब उद्धार चाहिए उसी को...
जो कहलाता उद्धारक था...

हा हन्त...कैसे पार पड़े...
कौने में बैठा ईश्वर...
अपना नाम ना बताऊँ...
सोचता होगा...
भीषण दानवों से...
जिन्हें बचाया जीवन भर...
वे ही अब दानव बने बैठे हैं...
अब उनसे खुद को बचाऊँ कैसे...

मैं कहता..
आ देख मिल कर, मेरे दानव साथी...
कैसे होगा...?
अब उद्धार खुद उद्धारक का...

जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 21 सितम्बर 2010 )

_____________________________________
Note :- (( मेरी उपरोक्त रचना के बन जाने के पीछे जिस रचना ने प्रेरणा का कार्य किया है
वह डॉ. नूतन गैरोला द्वारा रचित एक लघु कविता है , जोकि नीचे नाम सहित मौजूद है ))

मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है |
कभी ईर्ष्या उफनती,
कभी लोभ, क्षोभ
कभी मद - मोह,
लहरों से उठते
और फिर गिर जाते ||
पर न हारी हूँ कभी |
सर्वथा जीत रही मेरी,
क्योंकि रोशन दिया
रहा संग मन मेरे,
मेरी रूह में ,
ईश्वर का बसेरा है ||
► (डॉ. नूतन गैरोला)
_____________________________________

► यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..
► !!..धन्यवाद..!! ( Jogendra Singh )
_____________________________________

Views: 1471

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Comment by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 23, 2010 at 5:19pm
थैंक्स ► नवीन भईया ... :)
Comment by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 23, 2010 at 3:09pm
बागी जी , आपका मजाक करने का अंदाज़ अच्छा लगा दोस्त ... :)
Comment by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 23, 2010 at 2:44pm
ब्रिजेश जी , यह कविता नहीं बल्कि एक श्रृंखला बन गयी है ... पहले ► नूतन, फिर मैं और अब आपने पूरी तीन कवितायेँ एक ही संवाद को अपने ही अंदाज़ में आगे बढाती हुई बन पड़ीं हैं ... बहुत सुन्दर लिखा है आपने ... आपको बधाई ... :)

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2010 at 9:56am
सबसे पहले मैं डॉ नूतन जी को बधाई देना चाहता हूँ की आप के एक बेहतरीन एक काव्य रचना के प्रभाव से जोगी भाई के जिस्म मे प्रेतों का डेरा हो गया है, बहुत ही खुबसूरत कृति जोगी भाई, अब यह समझ मे नहीं आता की बधाई मैं आप को दूँ या आपके जिस्म के अन्दर बैठे प्रेतों को, बधाई हो इस शानदार कृति पर ,
Comment by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on September 23, 2010 at 6:30am
जोगिन्द्र भाई,
अभिभूत हूँ स्तब्ध भी,
और शायद
हूँ अभी निशब्द भी...
जो मालिक है हमारी ज़िन्दगी का
कैसा आज क्यों लाचार है ...?
क्या कहूं... कैसे बखानूं
और इसको सच क्यों मानू ?
जिंदगी स्वछंदता का नाम है क्या ?
ज़िन्दगी शायद बंधी है...
कायदों से ...और वोह भी ...
हम प्रबलता में ज़रा कुछ भूलते हैं...
कर्म को स्वछन्द मानव है हमेशा ..
किन्तु फल भी अपनी भूलों के
वही तो भोगते हैं....
क्यों रहें हम मुगालते में...
हम कभी उस न्याय-कर्ता
का करेंगे फैसला ...?
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