२१२/२१२/२१२/२१२
******
घाव की बानगी जब पुरानी पड़ी
याद फिर दुश्मनी की दिलानी पड़ी।१।
*
झूठ उसका न जग झूठ समझे कहीं
बात यूँ अनकही भी निभानी पड़ी।२।
*
दे गये अश्क सीलन हमें इस तरह
याद भी अलगनी पर सुखानी पड़ी।३।
*
बाल-बच्चो को आँगन मिले सोचकर
एक दीवार घर की गिरानी पड़ी।४।
*
रख दिया बाँधकर उसको गोदाम में
चीज अनमोल जो भी पुरानी पड़ी।५।
*
कर लिया सबने ही जब हमें आवरण
साख हमको सभी की बचानी पड़ी।६।
*
रोकना था उसे दो घड़ी और फिर
थी सरल बात वह भी घुमानी पड़ी।७।
*
स्वप्न तक उसने जब बेदखल कर दिये
तब रियासत स्वयं की बनानी पड़ी।८।
**
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online