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विद्वान बढ़ते जा रहे हैं

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विद्वान बढ़ते जा रहे हैं
=============
जनगोष्ठियों या जन सभाओं में,
वक्ता अगण्य होते हैं।
कुर्सियाॅं सब भरी होती हैं पर, श्रोता नगण्य होते हैं।
प्रायोजित की गई भीड़ में
स्वयं थपथपाते वक्ता अपनी पींठ,
होड़ रहती है अधिकाधिक बोलने की।
इसलिये,
सुनना अनसुना कर अन्य सभी सोते हैं।
पुराणकार ‘व्यासजी‘, जब ज्ञान बघारने पहुॅंचे भीड़ में,
तो उन्हें किसी ने नहीं सुना,
नहीं दिया ध्यान। और कुछ तो बोले-
इसे अपने पास ही रखो और बचाओ अपनी जान....
हम सब जानते हैं....
तुम जैसे बस, कहने को ही होते हैं?
शायद इसीलिये, विद्वान बढ़ते जा रहे हैं, ज्ञान घटता जा रहा है,
निर्दोष दंडित हो रहे हैं, न्याय बिकता जा रहा है।
हमारे कहने सुनने या बोलने बताने का क्या?
ऐंसे तो रोज, हजारों रोते हैं! ! !
11 जुलाई 2009

"मौलिक व अप्रकाशित" 

Views: 391

Comment

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Comment by Dr T R Sukul on January 27, 2016 at 10:11am

रचना की प्रशंसा करने के लिए बहुत धन्यवाद आद. शेख साहब। 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 23, 2016 at 12:47pm
बहुत सुंदर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय त्रैलोक्य रंजन शुक्ल जी।

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