लखूचंद
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एक दिन कालेज के कुछ युवक लखूचंद के सामने ही उसकी जमकर तारीफ कर रहे थे ,
‘‘‘ अरे ये तो लखूचंद के एक हाथ का कमाल है , दोनों हाथ होते तो पूरे जिले में मिठाई के नाम पर केवल इन्हें ही जाना जाता। लेकिन यार , ये तो बताओ कि दूसरा हाथ क्या जन्म से ही ऐसा है या बाद में कुछ हो गया ?‘‘
बहुत दिन बाद लखूचंद को अपनी जवानी के दिन याद आ गए, बोले ,
‘‘ युवावस्था में मैं यों ही बहुत धनवान होने का सपना देखा करता । पिताजी कहते थे कि मैं उनकी हलवाई की दूकान सम्हालूं…
Added by Dr T R Sukul on March 26, 2017 at 11:54am — 1 Comment
‘‘ अरे, सेठजी ! नमस्कार। अच्छा हुआ आप यहीं सब्जी बाजार में मिल गए, मैं तो आपके ही घर जा रहा था। समाचार यह है कि महाराज जी पधारे हैं, उनका कहना है कि इस एरिया में अहिंसा मंदिर का निर्माण कराना है जिसमें आपका सहयोग... ..।‘‘
‘‘ जी बिलकुल ! मेरी ओर से ग्यारह हजार , शाम को आपके पास पहुॅंचा दूॅंगा।‘‘
यह सुनकर, सब्जी का थैला टाॅंगे सेठजी के शिष्यनुमा नौकर से न रहा गया वह बोला,
‘‘सेठजी ! अभी आपने सब्जी की दूकान पर लौकी लेते समय लम्बी बहस के बाद, पूरे बाजार में बीस रुपये प्रति किलो…
Added by Dr T R Sukul on March 6, 2017 at 10:00pm — 12 Comments
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केवल तुम
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मैं बार बार मन ही मन हर्षित सा होता हॅूं,
हर ओर तुम्हारा ही तो अभिनन्दन है।
मन मिलने को आतुर फिर भी कुछ डर है सूनापन है,
हर साॅंस बनाती नव लय पर संगीत अनोखी धड़कन है,
अब तो हर द्वारे आहट पर तेरा ही अवलोकन है,
मैं इसीलिये नवगीत कंठ करता रहता हॅूं
हर शब्द में बस तेरा ही तो आवाहन है।
मन की राह बनाकर इन नैनों के सुमन बिछाये हैं,
मधुर मिलन की आस लिये ये अधर सहज मुस्काये हैं,
हर पल बढ़ते संवेदन…
Added by Dr T R Sukul on November 26, 2016 at 12:45pm — 6 Comments
151 प्रदूषण
जिंदगी जन्म से डूबी थी अश्रुसागर में,
अब तो लहरों के भंवर और भी गहरा रहे हैं!!
सांस की आस ले बाहर की ओर झाॅंका तो,
प्रदूषण की भभक से ही चेतना थर्रा गई।
डूबती उतरा रही नव कल्पनायें भी
घड़कते घड़घडाते घोष से घबरा गई।
विषैले गगनभेदी विकिरणों के दीर्घ ध्वज लहरा रहे हैं!!
स्वार्थी अर्थलोलुप वणिकवृत्ति व्याप्त घर घर में
मनुष्यता हर मनुज से दूर, कोसों दूर पाई।
परस्पर निकटतम संबंध भी दूषित विखंडित,
आत्मीयता, भ्रातृत्व और…
Added by Dr T R Sukul on August 7, 2016 at 3:18pm — No Comments
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भावजड़ता
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अहंमन्यता की तलैया में
मूर्खता की कीचड़ से जन्म ले
ए भावजड़ता !
तू कमल की तरह खिलती है।
अपने आकर्षण के भ्रमजाल में
उलझाती है ऐसे,
कि सारी जनता
लहरों पर सवार हो बस तेरे गले मिलती है।
झूठ सच के विश्लेषण की क्षमता हरण कर
आडम्बर ओढ़े, गढ़ती है नए रूप।
धनी हों या मानी, गुणी हों या ज्ञानी
तेरे कटाक्ष से सब होते हैं घायल
क्या साधू क्या फक्कड़ , बड़े बड़े भूप।
भू , समाज और भूसमाज भावना…
Added by Dr T R Sukul on July 5, 2016 at 11:23am — 10 Comments
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अच्छे दिन!
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राहु कुपित हैं या शनि की महादशा का प्रभाव
मंगल विमुख हैं या गुरु की कृपा का अभाव,
कितनी दयनीय दशा है...... ! ! !
अनिरुद्ध कालचक्र कैसा फंसा है!
विवेचना .... थकती है, कथनी.. रुकती है,
रूखी सूखी सी लगातार....साॅंस..... बस, चलती है ! ! !
घर - बाहर , बाजार - बीहड़, दिन - रात,
अन्तर्वेदना, करुणा, निराशा के आघात,
नियामक ने व्युत्क्रम स्वरूप तो लिया नही !
अदभुद् विकल्पों को आधार मिला नहीं !…
फिर भी.... ये…
Added by Dr T R Sukul on June 4, 2016 at 11:24pm — 6 Comments
Added by Dr T R Sukul on May 17, 2016 at 11:00pm — 10 Comments
165
ये गठरी!
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ये गठरी!
कब होगी हलकी,
परायों के समानार्थी,
अपनों के कर्ज से छलकी!
मूलाॅंश को पटाने की
योजना बनाई मैंने,
तत्क्षण,
अपनी अपनी व्याज दर बढ़ाई इन्होंने।
जिंदगी की रेलगाड़ी,
कभी पा न सकी पटरी!
कुछ लोग,
सुखपूर्वक जीते हैं,
कर्ज लेकर भी घी पीते हैं!
और,
चुकाने के नाम पर---
देते हैं धमकी!
सुख! क्या है?
क्या पता।
घर! क्या है?
नहीं सकता बता।
किराये की…
Added by Dr T R Sukul on April 25, 2016 at 6:19pm — 6 Comments
प्राणहीन जर्जर जीवन को
अपनाया एकान्त ने।
अपनी अद्भुद्ता की व्यापकता से
मोह लिया ऐसे,
कि अब, वही मेरा सगा है।
बाकी सब ने, मनमाना ठगा है। ।
शून्य को पाकर मैं,
बन गया, मालिक विराट का।
लुटाने को कितना हूँ…
Added by Dr T R Sukul on April 4, 2016 at 4:30pm — 8 Comments
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आस
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पलकों भरे प्यार को हम
नित आस लगाये रहे देखते,
मुट्ठी भर आशीष के लिये
कल, कल कहकर रहे तरसते,
कल की जिज्ञासा ले डूबी सारा जीवन
हम हाथ मले बेगार बटोरे रहे तड़पते।।
तिनके ने नजर चुराई ऐंसी,
हम मीलों जल में गये डूबते,
विकराल क्रूर भंवरों में फिर,
बहुविधि क्रंदन कर रहे सिसकते,
सब आस साॅंस में सूख गयी,
हम तमपूरित जलमग्न तहों में रहे भटकते।।
संरक्षण भी जो मिला हमको,
निर्देशों की बौछार लिये,…
Added by Dr T R Sukul on March 26, 2016 at 3:14pm — 4 Comments
115
मेरी प्यारी व्यथा
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खपरैल से निर्विघ्न आती
वर्षा की अनुपम फुहारों से,
आर्द्रशीत अनिल ने, भिगोया था तनमन अपना।
मेंढकों की सी जिंदगी में उस दिन...
अपनी 'भुजा की तकिये' के नीचे से आता,
बड़े चाव से, तुम्हारा--- स्वर सुना।
गुंजरित बसंत कहीं पल्लवित वसुंधरा
स्वतंत्र कामना समूह के अनोखे जाल में
बटोरे थी, आकर्षक संन्निधि अपनी,
'बक मीन दर्शन' की दशा को ,
चित्त दे, सौरभ विखेरते शशांक में,
भूख प्यास भूल, तुझे पल पल…
Added by Dr T R Sukul on February 21, 2016 at 4:49pm — 4 Comments
बासन्ती गन्ध
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सोचा था,
उस पार ,
शान्त निर्विघ्न क्षणों में,
पहुंच,
तुम्हारी मधुरस्मृति को सतत करूंगा।।
अलसाये ललचाये मन की तृप्ति हेतु,
नवकल्पित स्वरूप में,
खुद को व्यथित करूंगा।।
पर हाय! निठुर इस विपुल पवन के
तीक्ष्ण शूल,
ले आये,
बासन्ती गन्धयुक्त मधु झरित फूल।।
रह गया भ्रमित इस पार,
प्रिये!
उस पार.…
तुम्हारी याद रही.…
अब बतलाओ ,
मैं,
मधुर तुम्हारे…
Added by Dr T R Sukul on February 5, 2016 at 3:00pm — 15 Comments
Added by Dr T R Sukul on January 27, 2016 at 10:19am — 12 Comments
Added by Dr T R Sukul on January 21, 2016 at 5:36pm — 2 Comments
200
वही रवि, वही किरण,
वही धरा, वही गगन,
शीत के पुनीत कर्म में जुड़ा वही पवन।
वही रजनी, वही दिवा,
वही संध्या , वही उषा,
मयंक भी भटक रहा लिये सतत जिजीविषा।
पुरा वही, वही नया ,
कहें सभी नया, नया,
बदल रहे हैं मात्र अंक, बदल रही सतत प्रभा।
इसी गणन में अटका मन
निहारता रूपान्तरण,
किसे कहें विदा और करें किसका स्वागत जतन।
मौलिक एवं अप्रकाशित
०१ जनवरी…
ContinueAdded by Dr T R Sukul on January 1, 2016 at 9:00am — 6 Comments
दीवार
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बड़ा गहरा नाता है
तुम्हारा,
इन आॅसुओं से!
और इन आॅंसुओं का,
तुमसे!
मुझसे भी अधिक , तुम
इन्हें ही चाहते हो।
शायद इसीलिये....
जब तुम नहीं आते
ये,
अवश्य आ जाते हैं।
और जब
तुम आ जाते हो
ये,
तब भी निर्झर से
झरते हैं।
हमारे बीच. ..
अर्धपारदर्शी ,
दीवार बनते हैं!!
डॉ टी आर शुक्ल
7 नवंबर 2013
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr T R Sukul on December 21, 2015 at 11:37am — 4 Comments
खुशियाँ उनकी ,
आतिशवाजी की तरह छूती हैं , आसमान।
फुदकती हैं, फब्बारों सी, और
उनके अट्टहास में, अनजान, भी होते…
ContinueAdded by Dr T R Sukul on December 4, 2015 at 4:30pm — 10 Comments
29
आँखों में भय लिये
आज्ञाकारिता तय किये,
क्षुधोदर की भूले
बड़ी देर के बाद बैठ पाया था।
कंपायमान हाथों से
चलायमान श्वासों से ,
भुंजे हुए महुओं की छोटी सी
पोटली बस खोल ही पाया था।
जीवन समर्पित कर
मालिक को अपना कर
स्मृत अहसानों ने
छोटा सा उलहना दे पाया था।
ज्वार की वह बासी रोटी
गिजगिजी बहुत मोटी
महुओं सहित इस अनोखे भोजन को
कर ही न पाया था।
मालिक ने पुकारा...…
ContinueAdded by Dr T R Sukul on November 23, 2015 at 10:30pm — 4 Comments
Added by Dr T R Sukul on October 29, 2015 at 10:03pm — No Comments
99
कल, ए काल!
मैं, तेरे साथ ही आया था।
वादा भी था, साथ साथ चलने का , चलते रहने का।
आज,
तू मुझसे कितना आगे निकल गया.....!
नहीं नहीं... .. मैं रह गया हॅूं तुझसे बहुत पीछे.... ..!
इसलिये कि,
मैंने रुक कर, देखना चाहा इस प्रकृति के प्रवाह को,
पल पल बदलते रंगों के निखार को,
उलझती सुलझती वहुव्यापी चाह को।
तू... चलता रहा, चलता रहा कछुए की तरह,,,
और मैं ने अपनाया खरगोश की राह को।
एक बार नहीं , कई बार हुई हैं ये…
ContinueAdded by Dr T R Sukul on October 10, 2015 at 3:45pm — 2 Comments
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