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अच्छे दिन!
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राहु कुपित हैं या शनि की महादशा का प्रभाव
मंगल विमुख हैं या गुरु की कृपा का अभाव,
कितनी दयनीय दशा है...... ! ! !
अनिरुद्ध कालचक्र कैसा फंसा है!
विवेचना .... थकती है, कथनी.. रुकती है,
रूखी सूखी सी लगातार....साॅंस..... बस, चलती है ! ! !
घर - बाहर , बाजार - बीहड़, दिन - रात,
अन्तर्वेदना, करुणा, निराशा के आघात,
नियामक ने व्युत्क्रम स्वरूप तो लिया नही !
अदभुद् विकल्पों को आधार मिला नहीं !…
फिर भी.... ये दुविधा ! अनचाही विपदा ! !
अटकलों की दौड़ .... जारी... है सदा सर्वदा ! ! !
सच ! बुरे दिन! यही हैं? यही हैं ?....
आचार्य शंकर की हृदय प्रवेशी शक्ति को लेकर
घूमा मैं आज-- - मन, मन के अंदर,
जरा हो या युवा , कीट हो या जड़,
वही अपूर्णता , वही लालसा, वही अतृप्ति ! ! !
त्राहि त्राहि की रट, एक सी आग.....
अभावों की झड़ी ... काम ... काम... काम...।
फिर! अच्छे दिन! क्या हैं ? ? ?
16 जून 1982
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
रचना पर आपकी उपस्थिति, अनुमोदन और उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए विनम्र आभार , आदरणीय सौरभ पाण्डे जी।
आदरणीय टीआर सुकुल जी, इस मंच पर बहुत दिनों बाद इस शैली की इतनी प्रभावी रचना प्रस्तुत हुई है जिसके इंगित न केवल मनन-मंथन के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि गहन वैचारिकता की घूर्णन से संभावित परिणाम केप्रति उत्सुक भी करते हैं. जीव-निर्पेक्ष भाविक दशा के सापेक्ष तृष्णा का जैसा वर्णन हुआ है, वह आपकी सोच के विस्तार का आश्वस्तिकारी द्योतक है.
इस भावदशा के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय
सादर
आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी,
रचना पर अपनी उपस्थिति देते हुए भावपूर्ण टिप्पणी करने के लिए सादर धन्यवाद।
आदरणीया राहिला जी , रचना पर आपकी प्रसन्नतादायक टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद।
आचार्य शंकर की हृदय प्रवेशी शक्ति को लेकर
घूमा मैं आज-- - मन, मन के अंदर,
जरा हो या युवा , कीट हो या जड़,
वही अपूर्णता , वही लालसा, वही अतृप्ति ! ! ! ....बहुत प्रभाव शाली पंक्तियाँ हैं ये अद्भुत रचना लगभग ३४ साल पहले की ये रचना आपकी , आज के समय के लिए ही कही गई लग रही है हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय
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