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कल, ए काल!
मैं, तेरे साथ ही आया था।
वादा भी था, साथ साथ चलने का , चलते रहने का।
आज,
तू मुझसे कितना आगे निकल गया.....!
नहीं नहीं... .. मैं रह गया हॅूं तुझसे बहुत पीछे.... ..!
इसलिये कि,
मैंने रुक कर, देखना चाहा इस प्रकृति के प्रवाह को,
पल पल बदलते रंगों के निखार को,
उलझती सुलझती वहुव्यापी चाह को।
तू... चलता रहा, चलता रहा कछुए की तरह,,,
और मैं ने अपनाया खरगोश की राह को।
एक बार नहीं , कई बार हुई हैं ये पुनरावृत्तियाॅं
और..... फिर, फिर मिलीं हैं ये ...
विधाता की नूतन कृतियाॅं,
हम फिर भी कितने बेपरवाही से नित नये व्यूहोंको रचते ....
निकल पाने की चिंता से मुक्त,
निर्वाध चलते जा रहे हैं! ! !
17 जनवरी 1983
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत धन्यवाद आदरणीय भण्डारीजी , कविता को पसंद करने के लिए।
आदरणीय सुकुल जी , आपकी कविता अच्छी लगी , आपको हार्दिक बधाई ।
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