खुशियाँ उनकी ,
आतिशवाजी की तरह छूती हैं , आसमान।
फुदकती हैं, फब्बारों सी, और
उनके अट्टहास में, अनजान, भी होते हैं भागीदार-
जब होते हैं तल्लीन वे, जुगुप्सा में ....।
आत्मज्ञान की चर्चा के लिए उन्हें,
रहता है हमेशा- कालाभाव,
समयाभाव।
पर, ‘इसके‘ लिये! कम पड़ते हैं, चैबीसों घंटे और,
अनिवार्य काम भी कर दिये जाते हैं स्थगित, निलंबित....।
दूसरे क्या कहेंगे ? इसकी रहती है चिंता अधिक।
इसलिए, भरते हैं दंभ, आडम्बर ओढ़ कर, विवेकी होने का।
चलाते अनेक कालेधन्धे जनसेवा के नाम पर,
समाज सहित, आजीवन ये,
अपने आप को ही देते हैं धोखा।
5 जुलाई 2013
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
Respected vijay nikore महोदय ! वहुप्रतीक्षित आपकी टिप्पणी से प्रसन्नता हुई। विनम्र आभार ।
आपकी रचना अच्छी लगी। हार्दिक बधाई।
आदरणीय laxman dhami ji ,धन्यवाद सहित विनम्र आभार।
इस सुन्दर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई l
विनम्र आभार , आदरणीय भंडारी जी !कविता को मान देने और सार्थक टिप्पणी के लिए।
दूसरे क्या कहेंगे ? इसकी रहती है चिंता अधिक।
इसलिए, भरते हैं दंभ, आडम्बर ओढ़ कर, विवेकी होने का।
चलाते अनेक कालेधन्धे जनसेवा के नाम पर,
समाज सहित, आजीवन ये,
अपने आप को ही देते हैं धोखा। ---- बहुत सही बात कही , आदरणीय आपको हार्दिक बधाई , हर कोई एक नकली ज़िन्दगी ही जी रहा है आजकल !!
आदरणीय ज्योत्स्नाजी , कविता पसंद करने के लिए विनम्र धन्यवाद।
आदरणीय कान्ता जी , कविता पसन्द करने और सार्थक मनोभावना व्यक्त करने के लिए धन्यवाद सहित विनम्र आभार।
पर , ‘इसके‘ लिये! कम पड़ते हैं, चैबीसों घंटे और,
अनिवार्य काम भी कर दिये जाते हैं स्थगित, निलंबित....।------ वाह !!! "जुगुप्सा" को बहुत खूब भाव दिए है आपने आदरणीय त्रैलोक्य रंजन जी। यहाँ एक नए रंग में आपकी रचना पढ़ने को मिली ,बहुत पसंद आया। बधाई आपको।
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