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 2122 2122 2122 212

नाव है मझधार में नाविक नशे में चूर है
सांझ है होने लगी मंजिल नज़र से दूर है

संकटों से आदमी क्या देव भी बचते नहीं
वक्त के आगे सभी होते यहां मजबूर है

जिन्दगी की कशमकश में जीना’ जिसको आ गया
यों समझ लो हौसलों से वो बहुत भरपूर है

दोष है अपना समय के साथ चल पाये नहीं
बंद मुट्ठी से फिसलना वक्त का दस्तूर है

हाल ‘‘मेठानी’’ बतायंे क्या किसी को अब यहां
आदमी सुनता नहीं अब हो गया मगरूर है

( मौलिक एवं अप्रकाशित )
- दयाराम मेठानी

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Comment by Dayaram Methani on September 1, 2019 at 11:10pm

आदरणीय समर कबीर जी, प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद एवं सुझाव के लिए आभार।

Comment by Samar kabeer on September 1, 2019 at 2:59pm

जनाब दयाराम मेठानी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'संकटों से आदमी क्या देव भी बचते नहीं
वक्त के आगे सभी होते यहां मजबूर है'

इस शैर के सानी मिसरे में 'सभी' शब्द के कारण रदीफ़ है कि बजाय "हैं" हो गई है,शैर यूँ कर सकते हैं:-

'संकटों से देव भी बचते नहीं संसार में

वक़्त के आगे यहाँ हर आदमी मजबूर है'

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