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शहर की तंग गलियों से

शहर की  तंग  गलियों से निकलना चाहती हूँ,
मैं अपने गाँव के अंचल में  जाना चाहती  हूँ .

वो मौसम आम के ,डालियों से झूलना मेरा,
उन्हीं शाखों पे फिर झूम जाना चाहती हूँ .

बहुत ही याद आती हैं मेरे गांव की सखियाँ,
उन्हीं सखियों के संग खिलखिलाना चाहती हूँ .

बड़ी रफ़्तार वाली है शहर की ज़िन्दगी लेकिन,
मैं फुर्सत के वे लम्हे फिर चुराना चाहती हूँ .

चढ़ती ही जाऊं आस्मां की सीढ़ियाँ लेकिन,
जमीं पे ही अपना घर बसाना चाहती हूँ .

संजू शब्दिता  मौलिक व अप्रकाशित  

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 2, 2013 at 8:00pm
"आभार...आदरणीया, सादर बधाईय़ां..."
Comment by sanju shabdita on June 2, 2013 at 7:32pm

respected jitendra sir..aapko meri rachna achchi lagi,,mera likhna sarthak hua.yun hi sneh dristi ewm aashirvad banayen rakhen

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 2, 2013 at 7:10pm
"आदरणीया...संजू जी, बहुत ही उम्दा पंक्तियां है आपकी...'चढ़ती ही जाऊँ आस्मां की सीढियां लेकिन,जमीं पे ही अपना घर बसाना चाहती हूँ....बहुत सुंदर रचना ..शुभकामनायें

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