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नवगीत/ जीवन जीना है

क्या सुनना है

क्या कहना है

जीना औ मरना है

 

क्या पाया है

जो खोना है

दिन ही बस गिनना है

सपने सारे

सूखा मारे

घिस घिस कर चलना है

देह को बस गलना है

 

मन से हारा

पर हूँ जीता

रो रो कर हॅंसना है

किसको रोएं

पीर सुनाएं

सबका ही कहना है

बस जीवन जीना है

 

खेत को सींचें

अंकुर फूटें

बस इंतजार करना है

रात हुई थी

सुबह भी होगी

सोए, अब जगना है

यह जीवन जीना है।

              - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on July 23, 2013 at 8:30pm

आदरणीया अन्नपूर्णा बहन आपका हार्दिक आभार! आप अवश्य प्रयास करिए। मैं भी चाहता हूं कि आप पद्य में भी गद्य की तरह सतत रचना करें।
सादर!

Comment by annapurna bajpai on July 23, 2013 at 8:05pm

adarniy brejesh bhai ji , bahut hi badhiya navgeet likha hai apne , mai bhi prayas karungi .

Comment by बृजेश नीरज on July 14, 2013 at 10:01pm

आदरणीय रविकर जी आपका बहुत बहुत आभार!

Comment by रविकर on July 14, 2013 at 8:42pm

सुन्दर भाव
आदरणीय-
शुभकामनायें -


जीना पर चढ़ते रहो, एक एक फुट रोज |
जीवन-वन का उच्चतम, तरुवर फल लो खोज ||
जीना=सीढ़ी

Comment by बृजेश नीरज on July 14, 2013 at 8:28pm

आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by Vindu Babu on July 14, 2013 at 5:53pm
आदरणीय इस उत्कृष्ट रचना के लिए सादर बधाई स्वीकारें।
रचना के भाव बहुत अच्छे लगे।
सादर
Comment by बृजेश नीरज on July 13, 2013 at 5:26pm

आदरणीय निकोर साहब आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 13, 2013 at 5:25pm

आदरणीय राम भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by vijay nikore on July 13, 2013 at 10:43am

सुन्दर रचना के लिए अतिशय बधाई, आदरणीय।

सादर,

विजय निकोर

Comment by ram shiromani pathak on July 11, 2013 at 8:23pm

मन से हारा

पर हूँ जीता

रो रो कर हॅंसना है

किसको रोएं

पीर सुनाएं

सबका ही कहना है

बस जीवन जीना है////////सही कहा आपने 

आदरणीय भाई ब्रिजेश जी बहुत सुन्दर चित्रण किया है आपने//////हार्दिक बधाई  आपको 

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