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बहुत देर से 

धूप ही धूप  थी 

दूर तक

कोई दरख्त नहीं 

जिसकी छाँव तले मै 

आ जाऊं !

बहुत दिनों से

कंठ  सूखा था

दिनों तक कोई

लहर नहीं

जिसे जी भर मै

पी जाऊं !

कई जेठों  से

स्वेद की कितनी बूंदें

माथे छलछलाती थीं

कब शीतल पुरवाई में

समा जाऊं !

आ जाओ

बस आ ही जाओ

मेरी जिन्दगी 

छाँव, तृप्ति और श्वास

मेरी तुम !

-जीतेन्द्र 'गीत'  

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment by बृजेश नीरज on July 22, 2013 at 8:07pm

बहुत ही सुन्दर! इस सुन्दर भावपूर्ण रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!

Comment by Ketan Parmar on July 22, 2013 at 7:24pm

jaise kuch baat adhuri rah gayi hai

Comment by Ketan Parmar on July 22, 2013 at 7:22pm

koshish ke liye daad sweekar kare bhai

Magar na jane kyu mujhe kuch kami mehsus ho rahi hai

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 22, 2013 at 12:15pm
आदरणीय अरुण जी ~ आपको रचना का भाव स्पष्ट हुआ यह रचना की सार्थकता का प्रमाण है।
Comment by Arun Sri on July 22, 2013 at 12:09pm

प्रेम की व्याकुलता को बहुत ही सुन्दर ढंग से शब्द दिए आपने ! बहुत बढ़िया !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 22, 2013 at 12:04pm
लेखन की ख़ूबसूरती को सराहने हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय अजय जी।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 22, 2013 at 12:02pm
आदरणीया प्रियंका जी आपको रचना पसंन्द आई; रचना सार्थक हुयी शुक्रिया आपका।
Comment by ajay yadav on July 21, 2013 at 12:10pm

यू शिद्दत से बुलानेकी वजह वों पूंछे तो एक बात भाई कहना ही चाहिए -

"वजह पूछोगे , तो कभी , कुछ न बता पाऊँगा
कहा न ! अच्छे लगते हो , तो बस लगते हो .. !"

बहुत खूबसूरत लेखन -डॉ अजय 

Comment by Priyanka singh on July 20, 2013 at 9:16pm

बहुत खुबसूरत .....बधाई 

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