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लघुकथा : मतिमूढ़ (गणेश जी बागी)

संता लगभग एक साल बाद अपने गाँव लौट रहा था । बसंता इतना खुश था कि जो भी वेंडर ट्रेन मे आता वो कुछ न कुछ खरीद लेता, माला, गुड़िया, चूड़ी, बिंदी, सोनपापड़ी और भी बहुत कुछ । पैसे देने के लिए हर बार वह नोटों से भरा पर्स खोल लेता । अगल बगल के यात्रियों ने उसे डांटा भी, मगर भोला भला बसंता हँस कर बात टाल जाता ।    

आख़िर वही हुआ जिसका डर था, चलती ट्रेन में किसी ने उसका रुपयों से भरा पर्स निकाल लिया । बसंता ज़ोर ज़ोर से रोने लगा, तब सहयात्रिओं की आवाज़ें हर तरफ गूंजने लगीं । 

"देखा, इसीलिए मैं तुम्हें डाँट रहा था, और खोलो सब के सामने पर्स, करवा लिया न हजारों रुपयों का नुक्सान !
"मैं रुपयों के लिए नहीं रो रहा हूँ बाबू जी, पर्स में मेरी स्वर्गवासी माँ की फोटो थी, मेरे पास उसकी और कोई फ़ोटो भी नहीं है" 
तभी किसी की आवाज़ आई "मतिमूढ़ कही का ....."

(मौलिक व अप्रकाशित)

पिछला पोस्ट => लघुकथा : डंक

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 2, 2013 at 9:45am

आदरणीय गिरिराज भाई साहब, लघुकथा आपकी सराहना पा धन्य हुई, बहुत बहुत आभार ।  

Comment by अजीत शर्मा 'आकाश' on November 2, 2013 at 6:01am

भावुक लघुकथा महोदय !!!

Comment by Dhanesh kumar on November 1, 2013 at 11:04pm

Bahut Badhiya.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 1, 2013 at 10:31pm

आदरणीय गणेश भाई , जिस युग मे पैसे-रुपये के लिये भाई , भाई का दुश्मन हो जाता है उस युग मे माँ की फोटॉ के लिये रोने वाला तो मति मूढ़ ही हुआ न !!!! बहुत सुन्दर , सन्देश परक लघु कथा की रचना की है, आदरणीय आपको ढेरों बधाई !!!!!

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