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नवगीत - नये साल की धूप // --सौरभ


आँखों के गमलों में
गेंदे आने को हैं
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. .

ये आये तब
प्रीत पलों में जब करवट है
धुआँ भरा है अहसासों में
गुम आहट है
फिर भी देखो
एक झिझकती कोशिश तो की !
भले अधिक मत खुलना
तुम, पर
कुछ सुन जाना.. .
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. .

संवादों में--
यहाँ-वहाँ की, मौसम, नारे..
निभते हैं
टेबुल-मैनर में रिश्ते सारे
रौशनदानी
कहाँ कभी एसी-कमरों में ?
बिजली गुल है,
खिड़की-पल्ले तनिक हटाना.. .
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. .
 
अच्छा कहना
बुरी तुम्हें क्या बात लगी थी
अपने हिस्से
बोलो फिर क्यों ओस जमी थी ?
आँखों को तुम
और मुखर कर नम कर देना
इसी बहाने होंठ हिलें तो
सब कह जाना..
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. .
*********
-- सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 25, 2013 at 12:37am

भाई बृजेशजी, आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया का मेरे लिए विशेष अर्थ है. सहयोग बना रहे. शुभेच्छाएँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 25, 2013 at 12:35am

आदरणीय विजय भाईसाहब, आप जैसे संवेदनशील रचनाकार द्वारा मेरे निवेदन में कुछ सार्थकता दिखी, यही मेरा भी सौभाग्य है.
सादर धन्यवाद आदरणीय.
 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 25, 2013 at 12:32am

सादर धन्यवाद अन्नपूर्णाजी, आपकी उदार प्रतिक्रिया का मैं आभारी हूँ.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 25, 2013 at 12:30am

हार्दिक धन्यवाद,  भाई अभिनव अरुणजी..

सहयोग बनाये रखें.

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 25, 2013 at 12:24am

आदरणीय गिरिराजजी,
आपने क्या कह दिया ? भाई, हम सभी समवेत ही सीख रहे हैं.

नवगीत की यह विधा पचास के दशक से हिन्दी साहित्य का अन्योन्याश्रय भाग है. लेकिन कई कारण हैं कि इस विधा को उचित सम्मान हाल तक नहीं मिला था. इसके कई कारणों में से साहित्य के आँगन में चल रही मठाधीशी और एक विशेष विचारधारा भी कम जिम्मेवार नहीं है. वह विचारधारा छंदों और मात्रिक रचनाओं को साहित्य में चूक गयी विधा होने का ऐलान करती रहती है. लेकिन आज गीतो, ग़ज़लों, मात्रिक या वर्णिक छंदों की बहुतायत और पुनर्प्रसिद्धि ने छन्दों और गीतों को साहित्य में फिर से दृढ़ कर दिया है. और तो और, छंदमुक्त रचनाओं में भी अंतर्गेयता ऐसे विचारधारकों को सटीक उत्तर है.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 24, 2013 at 11:57pm

भाई आशीष सलिल जी, आपको रचना पसंद आयी यह मेरे लिए भी प्रसन्नता की बात है.
नववर्ष आपके लिए भी तमाम खुशियाँ लेकर आये, भाई.
शुभ-शुभ

Comment by coontee mukerji on December 24, 2013 at 10:48pm

अच्छा कहना
बुरी तुम्हें क्या बात लगी थी
अपने हिस्से
बोलो फिर क्यों ओस जमी थी ?
आँखों को तुम
और मुखर कर नम कर देना
इसी बहाने होंठ हिलें तो
सब कह जाना..
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. ......आपको नये साल की शुभकामनाएँ.सादर
*********

Comment by बृजेश नीरज on December 24, 2013 at 10:06pm

वाह! इसको जितनी बार पढ़ता हूँ, मन नहीं भरता! ये आपकी कलम का ही जादू है! आपको बहुत बहुत बधाई इस अप्रतिम रचना के लिए!

सादर!

Comment by vijay nikore on December 24, 2013 at 6:52pm

/अच्छा कहना
बुरी तुम्हें क्या बात लगी थी
अपने हिस्से
बोलो फिर क्यों ओस जमी थी ?
आँखों को तुम
और मुखर कर नम कर देना
इसी बहाने होंठ हिलें तो
सब कह जाना..
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. ./

 

संवेदन पूर्ण भावों की रसधारा से आप्लावित आपका अति सुन्दर नवगीत मन को छू गया l ढेरों
बधाई एवं सराहना के साथ।

Comment by annapurna bajpai on December 24, 2013 at 5:00pm

अच्छा कहना
बुरी तुम्हें क्या बात लगी थी
अपने हिस्से
बोलो फिर क्यों ओस जमी थी ?
आँखों को तुम
और मुखर कर नम कर देना
इसी बहाने होंठ हिलें तो
सब कह जाना..    .................................. वाह , आदरणीय सौरभ जी बहुत खूब , प्रत्येक पंक्ति मे जादू सा है । हर पंक्ति को मैंने कई कई बार पढ़ा । ये पंक्तियाँ खास कर बहुत अच्छी लगीं ।  सुंदर नवगीत , बहुत बहुत बधाई आपको । 

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