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दिवस हो चले कोमल-कोमल (नवगीत)-कल्पना रामानी

सर्द हवा ने बिस्तर बाँधा,

दिवस हो चले कोमल-कोमल।

 

सूरज ने कुहरे को निगला।

ताप बढ़ा, कुछ पारा उछला।

हिमगिरि पिघले, सागर सँभले,

निरख नदी, बढ़ चली चंचला।

 

खुली धूप से खिलीं वादियाँ,

लगे झूमने निर्झर कल-कल।

नगमें सुना रही फुलवारी
गूँज उठी भोली किलकारी
खिलती कलियाँ देख-देखकर
भँवरों पर छा गई खुमारी।

 

देख तितलियाँ, उड़ती चिड़ियाँ,

मुस्कानों से महक रहे पल।

 

अमराई जो कल तक पल-छिन

काट रही थी बनकर जोगन,

मौसम के इस नए रूप से।

आतुर है बनने को दुल्हन।

 

मन-आँगन में नृत्य कर रहे,

मोर, पपीहे, कोयल, बुलबुल।    

मौलिक व अप्रकाशित

---कल्पना रामानी 

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Comment by कल्पना रामानी on January 10, 2014 at 10:30pm

            

आदरणीय नादिर खान जी, यहाँ मुंबई का मौसम बदल चुका है, आपको गीत पसंद आया इसके लिए हार्दिक धन्यवाद । सादर

Comment by नादिर ख़ान on January 10, 2014 at 9:25pm

आदरणीया कल्पना जी, सर्दी में गर्मी का एहसास देता नवगीत... बहुत खूब।

Comment by S. C. Brahmachari on January 10, 2014 at 9:00pm
आपकी सुंदर कविता पढ़कर केवल मोर, पपीहे, कोयल, बुलबुल ही नहीं , मेरा मन भी झूमने लगा ! हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 10, 2014 at 8:43pm

आदरणीया कल्पना जी , बहुत सुन्दर नव गीत की रचना के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by Sarita Bhatia on January 10, 2014 at 4:38pm

सुन्दर नवगीत दी 

Comment by Meena Pathak on January 10, 2014 at 1:21pm

बहुत सुन्दर नवगीत आ०  कल्पना दी  .. सादर बधाई स्वीकारें 

Comment by Shyam Narain Verma on January 10, 2014 at 11:13am

बहुत सुन्दर भावों से सजी रचना बहुत 2 बधाई ...................

कृपया ध्यान दे...

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