माँ
ज़िक्र त्याग का हुआ जहाँ माँ!
नाम तुम्हारा चलकर
आया।
कैसे तुम्हें रचा विधना ने
इतना कोमल इतना स्नेहिल!
ऊर्जस्वित इस मुख के आगे
पूर्ण चंद्र भी लगता धूमिल।
क्षण भंगुर भव-भोग सकल माँ!
सुख अक्षुण्ण तुम्हारा
जाया।
दिया जलाया मंदिर-मंदिर
मान-मनौती की धर बाती।
जहाँ देखती पीर-पाँव तुम
दुआ माँगने नत हो जाती।
क्या-क्या सूत्र नहीं माँ…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on October 1, 2014 at 9:30am — 9 Comments
फूल हमेशा बगिया में ही, प्यारे लगते।
नीले अंबर में ज्यों चाँद-सितारे लगते।
बिन फूलों के फुलवारी है एक बाँझ सी,
भरी गोद में माँ के राजदुलारे लगते।
हर आँगन में हरा-भरा यदि गुलशन होता,
महके-महके, गलियाँ औ’ चौबारे लगते।
दिन बिखराता रंग, रैन ले आती खुशबू,
ओस कणों के संग सुखद भिनसारे लगते।
फूल, तितलियाँ, भँवरे, झूले, नन्हें बालक,
मन-भावन ये सारे, नूर-नज़ारे लगते।
मिल बैठें, बतियाएँ…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on September 27, 2014 at 10:51am — 22 Comments
घर-चमन में झिलमिलाती, रोशनी तुमसे पिता
ज़िंदगी में हमने पाई, हर खुशी तुमसे पिता
छत्र-छाया में तुम्हारी, हम पले, खेले, बढ़े
इस अँगन में प्रेम की, गंगा बही तुमसे पिता
गर्व से चलना सिखाया, तुमने उँगली थामकर
ज़िंदगी पल-पल पुलक से, है भरी तुमसे पिता
याद हैं बचपन की बातें, जागती रातें मृदुल
ज्ञान की हर बात जब, हमने सुनी तुमसे पिता
प्रेरणा भयमुक्त जीवन की, सदा हमको मिली
नित नया उत्साह भरती, हर घड़ी…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on September 15, 2014 at 9:30pm — 10 Comments
देवों से हमको मिला, संस्कृत का उपहार।
देवनागरी तब बनी, संस्कृति का आधार।
युग पुरुषों ने तो रचे, हिन्दी में बहु छंद।
पर नवयुग की पौध ने, किए कोश सब बंद।
वेद ऋचाओं का नहीं, हुआ उचित सम्मान।
हिन्द पुत्र भूले सभी, हिन्दी का…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on September 5, 2014 at 6:30pm — 8 Comments
हम पाखी जिन बाग वनों के, हरें वहाँ से शूल।
चन्दन सी जो खुशबू बाँटें, उपजाएँ वे फूल।
सावन साधें,…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on August 15, 2014 at 9:30pm — 10 Comments
2121 222 2121 222
मानसूनी बारिश के, क्या हसीं नज़ारे हैं।
रंग सारे धरती पर, इन्द्र ने उतारे हैं।
छा गया है बागों में, सुर्ख रंग कलियों पर,
तितलियों के भँवरों से, हो रहे इशारे हैं।
सौंधी-सौंधी माटी में, रंग है उमंगों का,
तर हुए किसानों के, खेत-खेत प्यारे हैं।
मेघों ने बिछाया है, श्याम रंग का आँचल,
रात हर अमावस है, सो गए सितारे हैं।
सब्ज़ रंगी सावन ने, सींच दिया है…
Added by कल्पना रामानी on July 5, 2014 at 9:30am — 10 Comments
अपने बच्चों को सिंकते हुए भुट्टे और बिकते हुए जामुनों को ललचाई नज़रों से देखते हुए वो मन मसोस कर रह जाती थी। आज उसे तनख़्वाह मिली थी, उसके हाथों में पोटली देख कोने में खेलते हुए दोनों बच्चे खिलौने छोड़ दौड़ पड़े। तभी बीड़ी पीते हुए पति ने उससे कहा-“ला पैसे, बहुत दिनों से गला तर नहीं हुआ”... “लेकिन आज मैं बच्चों के लिए...” “तड़ाक!..." "तो तू मेरे खर्च में कटौती करेगी?” पोटली जमीन पर गिरी, जामुन और भुट्टे मैली ज़मीन सूँघने लगे और... माँ पर पड़े थप्पड़ से सहमे हुए बच्चे अपना गाल सहलाते हुए पुनः अपने…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 2, 2014 at 1:00pm — 17 Comments
कल हुआ जो वाक़या, अच्छा लगा।
हाथ तेरा थामना अच्छा लगा।
जिस्म तो काँपा जो तूने प्यार से,
कुछ हथेली पर लिखा, अच्छा लगा।
देखकर मशगूल हमको इस कदर,
चाँद का मुँह फेरना अच्छा लगा।
घाट रेतीले जलधि के नम हुए,
मछलियों का तैरना अच्छा लगा।
आसमाँ में बिजलियों की कौंध में,
बादलों का काफिला अच्छा लगा।
नाम ले तूने पुकारा जब मुझे,
वादियों में गूँजना अच्छा लगा।
बर्फ में लिपटे…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 2, 2014 at 11:00am — 17 Comments
मुझको तो गुज़रा ज़माना चाहिए।
फिर वही बचपन सुहाना चाहिए।
जिस जगह उनसे मिली पहली दफा,
उस गली का वो मुहाना चाहिए।
तैरती हों दुम हिलातीं मछलियाँ,
वो पुनः पोखर पुराना चाहिए।
चुभ रही आबोहवा शहरी बहुत,
गाँव में इक आशियाना चाहिए।
भीड़ कोलाहल भरा ये कारवाँ,
छोड़ जाने का बहाना चाहिए।
सागरों की रेत से अब जी भरा,
घाट-पनघट, खिलखिलाना चाहिए।
घुट रहा दम बंद पिंजड़ों में…
Added by कल्पना रामानी on June 30, 2014 at 2:30pm — 21 Comments
माँ ने आज उसके हाथ पर पूरी गोल रोटी और गुड का टुकड़ा रखा तो गोलू की आँखें आश्चर्य से फैल गईं। पलटकर आसमान की ओर देखा। पूनम का गोल चाँद चमक रहा था। दोनों की नज़रें मिलीं और एक मीठी सी मुस्कान हवा में घुल गई।
.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by कल्पना रामानी on June 24, 2014 at 9:00am — 17 Comments
इन्द्र्देव ने भेज दिया है
धरती को पैगाम।
बूँदों से है लिखी इबारत।
बदलेगी जन-जन की किस्मत।
मानसून इस बार करेगा
सबके मन की पूरी हसरत।
भर चौमासा घन बरसेंगे
झूम झूम अविराम।
हरषेगा खेतों में हँसिया।
अन्न बीज रोपेगा हरिया।
उड़ जाएगी निकल नीड़ से,
बेबस हो महँगाई…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on June 22, 2014 at 2:42pm — 12 Comments
मात्रिक छंद
हमसे रखो न खार, किताबें कहती हैं।
हम भी चाहें प्यार, किताबें कहती हैं।
घर के अंदर एक हमारा भी घर हो।
भव्य भाव संसार, किताबें कहती हैं।
बतियाएगा मित्र हमारा नित तुमसे,
हँसकर हर किरदार, किताबें कहती हैं।
खरीदकर ही साथ सहेजो, जीवन भर,
लेना नहीं उधार, किताबें कहती हैं।
धूल, नमी, दीमक से डर लगता हमको,
रखो स्वच्छ आगार, किताबें कहती हैं।
कभी न भूलो जो संदेश…
Added by कल्पना रामानी on June 17, 2014 at 2:30pm — 22 Comments
212221222122212
छीन सकता है भला कोई किसी का क्या नसीब?
आज तक वैसा हुआ जैसा कि जिसका था नसीब।
माँ तो होती है सभी की, जो जगत के जीव हैं,
मातृ सुख किसको मिलेगा, ये मगर लिखता नसीब।
कर दे राजा को भिखारी और राजा रंक को,
अर्श से भी फर्श पर, लाकर बिठा देता नसीब।
बिन बहाए स्वेद पा लेता है कोई चंद्रमा,
तो कभी मेहनत को भी होता नहीं दाना नसीब।
दोष हो जाते बरी, निर्दोष बन जाते…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on May 14, 2014 at 2:23pm — 17 Comments
1)
सोने की चिड़िया कभी, कहलाता था देश
नोच-नोच कर लोभ ने, बदल दिया परिवेश।
बदल दिया परिवेश, खलों ने खुलकर लूटा।
भरे विदेशी कोष, देश का ताला टूटा।
हुई इस तरह खूब, सफाई हर कोने की,
ढूँढ रही अब…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 30, 2014 at 11:30am — 14 Comments
गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।
जब से नई हवा ने अपना,
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर,
वापस जाती है हर भोर।
नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,
अब उनको मुंडेर, अटारी।
हर आँगन के हरे पेड़ पर,
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा,
देख सन्निकट अपना काल।
बदल रहा है अब तो हर घर,
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।
बतियाते दिन मूक खड़े…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 23, 2014 at 9:00am — 27 Comments
212221222122212
गर्भ में ही निज सुता की, काटकर तुम नाल माँ!
दुग्ध-भीगा शुभ्र आँचल, मत करो यूँ लाल माँ!
तुम दया, ममता की देवी, तुम दुआ संतान की,
जन्म दो जननी! न बनना, ढोंगियों की ढाल माँ!
मैं तो हूँ बुलबुल तुम्हारे, प्रेम के ही बाग की,
चाहती हूँ एक छोटी सी सुरक्षित डाल माँ!
पुत्र की चाहत में तुम अपमान निज करती हो क्यों?
धारिणी, जागो! समझ लो भेड़ियों की चाल माँ!
सिर उठाएँ जो असुर, उनको…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 16, 2014 at 10:00am — 28 Comments
1212212122
किसे सुनाएँ व्यथा वतन की।
है कौन बातें करे अमन की।
हुई हुकूमत हितों पे हावी,
हताश है, हर गुहार जन की।
फिसल रहे पग हरेक मग पर,
कुछ ऐसी काई जमी पतन की।
फरेब क़ाबिज़ हैं कुर्सियों पर,
कदम तले बातें सत वचन की।
निगल के खुशबू को नागफनियाँ,
कुचल रहीं आरज़ू चमन की।
ये किसके बुत क्यों बनाके रावण,
निभा रहे हैं प्रथा दहन की।
ज़मीं के मुद्दों पे चुप हैं…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 14, 2014 at 9:45pm — 10 Comments
मात्रिक छंद
असुरों के सुर उच्च हुए हैं, मौन मंत्र सिखलाना होगा।
राम, तुम्हें फिर से कलियुग में, भारत भू पर आना होगा।
ओढ़ चदरिया राम नाम की, घूम रहे चहुं ओर अधर्मी।
धर्म-पंथ उनको दिखलाकर, गूढ़-ज्ञान फैलाना होगा।
मानवता का ढोंग रचाकर, रावण ताज सजा …
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 8, 2014 at 11:00am — 18 Comments
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समय हमें क्या दिखा रहा है।
कहाँ ज़माना ये जा रहा है।
कोई बनाता है घर तो कोई,
बने हुए को ढहा रहा है।
बुझाए लाखों के दीप जिसने,
वो रोशनी में नहा रहा है।
गुलों को माली ही बेदखल कर,
चमन में काँटे उगा रहा है।
कुचलता आया जहाँ उसी को,
जो फूल खुशबू लुटा रहा है।
जो बीज बोकर उगाता रोटी,
वो भूख से बिलबिला रहा है।
हो बाढ़ या सूखा दीन का तो,
सदा…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 9:50am — 24 Comments
रंग चले निज गेह, सिखाकर
मत घबराना जीने से।
जंग छेड़नी है देहों को,
सूरज, धूप, पसीने से।
शीत विदा हो गई पलटकर।
लू लपटें हँस रहीं झपटकर।
वनचर कैद हुए खोहों में,
पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।
सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,
तरण ताल के सीने से।
तले भुने पकवान दंग हैं।
शायद इनसे लोग तंग हैं।
देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,
फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।
मात मिली भारी वस्त्रों…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 1, 2014 at 10:30am — 16 Comments
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