हम पाखी जिन बाग वनों के, हरें वहाँ से शूल।
चन्दन सी जो खुशबू बाँटें, उपजाएँ वे फूल।
सावन साधें, हिमगिरि काटें, बाँधें बसंत को,
हर मौसम को कर दें मिलकर, हम अपने अनुकूल।
छूटे ना पतवार हाथ से, नाव लाख डोले,
तूफानों से लें टक्कर बन, तने हुए मस्तूल।
आशाओं की खाद डालकर, श्रम-अंकुर रोपें,
और निराशा की जड़ को ही, कर दें नष्ट समूल।
प्रेम, त्याग हथियार बनाकर, मन से मन जीतें,
अमन चैन का हाथ न छोड़ें, कायम रहें उसूल।
हम भावी इतिहास रचयिता, भाव न ये भूलें।
बने देश यह एक नगीना, यही सोच हो मूल।
बलिदानों के बल पर कल था, हासिल किया जिसे,
खंडित हो अब वो स्वतन्त्रता, करें न ऐसी भूल।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत खूबसूरत भाव आपकी ग़ज़ल के आदरणीया कल्पना जी
हार्दिक बधाई
आदरणीय जितेंद्र गीतजी, विजय शंकरजी, गोपाल नारायणजी, श्याम नरेनजी, विजय निकोरे जी, जवाहर लाल सिंहजी, प्रिय सविता मिश्रा, सीमा हरी शर्मा जी आप सबका प्रोत्साहित करती हुई सुंदर टिप्पणियों के लिए हार्दिक आभार
बलिदानों के बल पर कल था, हासिल किया जिसे,
खंडित हो अब वो स्वतन्त्रता, करें न ऐसी भूल।
सीख देती हुई रचना आदरणीया!
प्रेरित करती इस गज़ल के लिए बहुत बधाई, आदरणीया कल्पना जी।
सुंदर रचना दी _/\_
" सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई ...... " |
आदरणीया
आपके इस सन्देश को लोग आत्मसात करें यही कामना है i
सादर i
स्वतंत्रता-दिवस के राष्ट्रिय पर्व पर बहुत ही सुंदर गजल कही आपने आदरणीया कल्पना जी. हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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