गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।
जब से नई हवा ने अपना,
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर,
वापस जाती है हर भोर।
नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,
अब उनको मुंडेर, अटारी।
हर आँगन के हरे पेड़ पर,
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा,
देख सन्निकट अपना काल।
बदल रहा है अब तो हर घर,
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।
बतियाते दिन मूक खड़े हैं।
फीकी हुई सुरमई शाम।
घूम-घूम कर ऋतु बसंत की,
हो निराश जाती निज धाम।
गाँवों के सुख राख़ कर गई,
शहरों की जगमग चिंगारी।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया प्राची जी, रचना पर आपकी उपस्थिति से उत्साह और बढ़ जाता है। प्रोत्साहित करने के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय सौरभ जी, आपने गीत के मर्म को समझा, बहुत खुशी हुई। इस गीत कि रचना ही इन्हीं भावों को शब्द देने के प्रयास के कारण हुई है। आपकी सूक्ष्म दृष्टि की तो मैं हमेशा से कायल हूँ। आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय सत्यनारायन सिंह जी, सादर धन्यवाद
आदरणीया विंदु जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका
प्रिय महिमा जी, स्नेहपूर्ण सुंदर टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय विजय जी, रचना कि सराहना के लिए सादर धन्यवाद
सुन्दर नवगीत प्रस्तुत हुआ है आ० कल्पना रामानी जी
हार्दिक बधाई
हर आँगन के हरे पेड़ पर,
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा,
देख सन्निकट अपना काल।
बदल रहा है अब तो हर घर,
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।
गीत की सार्थकता कथ्य से निस्सृत है, आदरणीया कल्पनाजी. आपकी संवेदना को नमन..
नवगीत बहुत ही सुन्दर है. इस उत्तम नवगीत के लिए आदरणीया कल्पना जी आपको ढेरों हार्दिक बधाई
अरे वाह आदरणीया!
बिलकुल यथार्थ और सटीक अभिव्यक्ति की है।
आपको हार्दिक बधाई और समाज के लिए शुभकामनायें।
सादर
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