अपने बच्चों को सिंकते हुए भुट्टे और बिकते हुए जामुनों को ललचाई नज़रों से देखते हुए वो मन मसोस कर रह जाती थी। आज उसे तनख़्वाह मिली थी, उसके हाथों में पोटली देख कोने में खेलते हुए दोनों बच्चे खिलौने छोड़ दौड़ पड़े। तभी बीड़ी पीते हुए पति ने उससे कहा-“ला पैसे, बहुत दिनों से गला तर नहीं हुआ”... “लेकिन आज मैं बच्चों के लिए...” “तड़ाक!..." "तो तू मेरे खर्च में कटौती करेगी?” पोटली जमीन पर गिरी, जामुन और भुट्टे मैली ज़मीन सूँघने लगे और... माँ पर पड़े थप्पड़ से सहमे हुए बच्चे अपना गाल सहलाते हुए पुनः अपने टूटे-फूटे खिलौनों के साथ कोने में दुबक गए।
मौलिक व अप्रकाशित
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बहुत खुबसुरत दी ..सादर नमस्ते
उत्साह वर्धन के लिए सादर धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी
एक ऐसी घटना को शब्द मिला है जो ऐसे परिवारों में आम हुआ करती है.
गरीबी, दारू, अतार्किक हठ, सहमा बचपन और प्रताड़ित पत्नियाँ.. एक ऐसा समुच्चय बनाता है जो समाज का अभिशप्त रूप है.
प्रस्तुति के लिए धन्यवाद आदरणीय़ा
लघुकथा आपको अच्छी लगी, मन हर्षित हुआ, हार्दिक धन्यवाद प्रिय बृजेश जी
मार्मिक लघु कथा! आपके शब्दों ने दृश्य को बखूबी उभारा है! आपको बहुत-बहुत बधाई!
आदरणीय शुभ्रांशु जी, आपने रचना के कमजोर बिन्दु की ओर ध्यान आकर्षित करवाया इसके लिए बहुत धन्यवाद। मेरा इस तरफ ध्यान ही नहीं गया। संशोधन तो करना ही पड़ेगा।/सादर
आदरणीय शुभ्रांशुजी, विजय शंकरजी, जितेंद्र जी, प्रमोद श्रीवास्तवजी लक्ष्मण लड़ीवाला जी गोपाल नारायण जी,प्रियंका जी , राजेश कुमारीजी, सविता जी, मंजरी जी, लघुकथा पर आप सबकी सराहना से मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। आप सबका सादर धन्यवाद
bahut marmik kath . badhaai
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