कल हुआ जो वाक़या, अच्छा लगा।
हाथ तेरा थामना अच्छा लगा।
जिस्म तो काँपा जो तूने प्यार से,
कुछ हथेली पर लिखा, अच्छा लगा।
देखकर मशगूल हमको इस कदर,
चाँद का मुँह फेरना अच्छा लगा।
घाट रेतीले जलधि के नम हुए,
मछलियों का तैरना अच्छा लगा।
आसमाँ में बिजलियों की कौंध में,
बादलों का काफिला अच्छा लगा।
नाम ले तूने पुकारा जब मुझे,
वादियों में गूँजना अच्छा लगा।
बर्फ में लिपटे पहाड़ों का बहुत,
दूर तक वो सिलसिला अच्छा लगा।
“कल्पना” फिर वो तेरा वादा प्रियम!
उम्र भर के साथ का अच्छा लगा।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी, मंथन तो चलता ही रहता है, आपकी बात ध्यान में रखूँगी, आपका मन से धन्यवाद
शेर प्रति शेर मन रमता गया. वैसे इस ग़ज़ल को यहीं मत छोड़ियेगा.. समय देते रहियेगा.. अभी जब इतने प्रखर हैं तो यही शेर और प्रभावी हो कर निखरेंगे.
नमन आदरणीया कल्पना जी..
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गिरिराज जी
प्रिय गीतिका जी, मंजरी जी,वंदना जी सराहना भरे शब्दों के लिए आप सबका मन से धन्यवाद
आदरणीय नरेंद्र सिंह जी, बहुत धन्यवाद आपका
आदरणीय तिलक राज जी, गजल पर आपकी उपस्थिति से बहुत हर्ष हुआ। प्रोत्साहित करने के लिए आपका हार्दिक आभार
आदरणीय ब्रह्मचारी जी, सादर धन्यवाद
प्रिय राजेश कुमारी जी, अपनत्व भरी टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद
आदरणीय गोपाल नारायण जी, आपसे गजल की इतनी तारीफ पाकर उत्साह कई गुना बढ़ गया है। आपका हार्दिक आभार
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