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किसे सुनाएँ व्यथा वतन की।
है कौन बातें करे अमन की।
हुई हुकूमत हितों पे हावी,
हताश है, हर गुहार जन की।
फिसल रहे पग हरेक मग पर,
कुछ ऐसी काई जमी पतन की।
फरेब क़ाबिज़ हैं कुर्सियों पर,
कदम तले बातें सत वचन की।
निगल के खुशबू को नागफनियाँ,
कुचल रहीं आरज़ू चमन की।
ये किसके बुत क्यों बनाके रावण,
निभा रहे हैं प्रथा दहन की।
ज़मीं के मुद्दों पे चुप हैं चर्चे,
विमूढ़ चर्चा करें गगन की।
न जाने कब होगी “कल्पना” फिर
नवेली प्रातः नई किरन की।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय चन्द्रशेखर जी, जितेंद्र जी, गिरिराज जी, शकील जी,शिज्जुजी, सचिन जी, मीना जी, प्रिय बृजेश, मुकेश, आप सबका प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी से रचना का मान बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद
बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई दीदी!
अच्छी गजल के लिए हार्दिक बधाई।
बहुत सुंदर गजल कही आपने आदरणीया कल्पना जी, हार्दिक बधाई आपको
फिसल रहे पग हरेक मग पर,
कुछ ऐसी काई जमी पतन की।............यह शेर बेहद पसंद आया .
आदरणीया कल्पना दीदी
अच्छी ग़ज़ल हुई है
ज़मीं के मुद्दों पे चुप हैं चर्चे,
विमूढ़ चर्चा करें गगन की।
क्या कहने..बहुत खूब
आदरणीया कल्पना जी , खूब सूरत ग़ज़ल के लिये आपको दिली बधाइयाँ !
फिसल रहे पग हरेक मग पर,
कुछ ऐसी काई जमी पतन की।
वाह! वाह! क्या कहने। दिली मुबारकबाद आदरणीया।
आदरणीय कल्पना जी, बेहद शानदार गजल पर हार्दिक बधाई आपको !
हमेशा की तरह एक और बेमिशाल रचना .. बधाई दी | सादर
बेहतरीन रचना आदरणीया बहुत बहुत बधाई आपको
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