माँ
ज़िक्र त्याग का हुआ जहाँ माँ!
नाम तुम्हारा चलकर
आया।
कैसे तुम्हें रचा विधना ने
इतना कोमल इतना स्नेहिल!
ऊर्जस्वित इस मुख के आगे
पूर्ण चंद्र भी लगता धूमिल।
क्षण भंगुर भव-भोग सकल माँ!
सुख अक्षुण्ण तुम्हारा
जाया।
दिया जलाया मंदिर-मंदिर
मान-मनौती की धर बाती।
जहाँ देखती पीर-पाँव तुम
दुआ माँगने नत हो जाती।
क्या-क्या सूत्र नहीं माँ तुमने
संतति पाने को
अपनाया।
गुण करते गुणगान तुम्हारा
तुमको लिख कवि होते गर्वित।
कविता खुद को धन्य समझती
माँ जब उसमें होती वर्णित।
उपकृत हर उपमान तुम्हीं से
हर उपमा ने तुमको
गाया।
चाह यही हर भाव हमारा
तव चरणों में ही अर्पण हो।
मातु! कलेजे के टुकड़ों को
टुकड़ा टुकड़ा हर इक गुण दो।
हम भी कुछ लौटाएँ तुमको
जो-जो हमने तुमसे
पाया।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार सीमा जी
आदरणीय नरेंद्र जी, हार्दिक धन्यवाद आपका
प्रिय सविता, बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय गणेश जी, रचना की सराहना के लिए आपका दिली धन्यवाद
बहुत खूबसूरत...सादर .नमस्ते दी
//गुण करते गुणगान तुम्हारा
तुमको लिख कवि होते गर्वित।
कविता खुद को धन्य समझती
माँ जब उसमें होती वर्णित।//
यह बंद सबसे खूबसूरत हुआ है, आदरणीया नवगीत पर आपकी पकड़ जबरदस्त है, बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, बहुत बहुत बधाई।
आदरणीय सुलभ जी, आपने वाकई बेहतर सुझाव दिया है, शायद कुछ समय बाद मेरे दिमाग में यही विचार आता। इससे अंतरा और सुंदर बन जाएगा। आपका हृदय से धन्यवाद
ण्क-ण्क पंक्ति वाह की हकदार है। वाकई बहुत सुन्दर गीत हुआ है। बधाई कल्पना जी !
क्या अंतिम बंद में अर्पित की जगह अर्पण किया जा सकता है ? - देख लें
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