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नवगीत//कल्पना रामानी//

माँ

ज़िक्र त्याग का हुआ जहाँ माँ!

नाम तुम्हारा चलकर

आया।

 

कैसे तुम्हें रचा विधना ने

इतना कोमल इतना स्नेहिल!    

ऊर्जस्वित इस मुख के आगे

पूर्ण चंद्र भी लगता धूमिल।

 

क्षण भंगुर भव-भोग सकल माँ!

सुख अक्षुण्ण तुम्हारा   

जाया।

 

दिया जलाया मंदिर-मंदिर

मान-मनौती की धर बाती।

जहाँ देखती पीर-पाँव तुम  

दुआ माँगने नत हो जाती।

 

क्या-क्या सूत्र नहीं माँ तुमने

संतति पाने को

अपनाया।

 

गुण करते गुणगान तुम्हारा

तुमको लिख कवि होते गर्वित।

कविता खुद को धन्य समझती

माँ जब उसमें होती वर्णित।

 

उपकृत हर उपमान तुम्हीं से

हर उपमा ने तुमको

गाया।

 

चाह यही हर भाव हमारा

तव चरणों में ही अर्पण हो।

मातु! कलेजे के टुकड़ों को

टुकड़ा टुकड़ा हर इक गुण दो।

 

हम भी कुछ लौटाएँ तुमको

जो-जो हमने तुमसे

पाया।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by कल्पना रामानी on October 5, 2014 at 9:56pm

हार्दिक आभार सीमा जी

Comment by seemahari sharma on October 5, 2014 at 8:40pm
बहुत सुंदर गीत है कल्पना जी बधाई
Comment by कल्पना रामानी on October 5, 2014 at 6:33pm

आदरणीय नरेंद्र जी, हार्दिक धन्यवाद आपका

Comment by कल्पना रामानी on October 5, 2014 at 6:33pm

प्रिय सविता, बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on October 5, 2014 at 6:28pm

आदरणीय गणेश जी, रचना की सराहना के लिए आपका दिली धन्यवाद

Comment by savitamishra on October 3, 2014 at 1:40pm

बहुत खूबसूरत...सादर .नमस्ते दी


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 3, 2014 at 10:36am

//गुण करते गुणगान तुम्हारा

तुमको लिख कवि होते गर्वित।

कविता खुद को धन्य समझती

माँ जब उसमें होती वर्णित।//

यह बंद सबसे खूबसूरत हुआ है, आदरणीया नवगीत पर आपकी पकड़ जबरदस्त है, बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, बहुत बहुत बधाई।   

Comment by कल्पना रामानी on October 2, 2014 at 9:50pm

आदरणीय सुलभ जी, आपने वाकई बेहतर सुझाव दिया है, शायद कुछ समय बाद मेरे दिमाग में यही विचार आता। इससे अंतरा  और सुंदर बन जाएगा। आपका हृदय से धन्यवाद

Comment by Sulabh Agnihotri on October 2, 2014 at 9:07pm

ण्क-ण्क पंक्ति वाह की हकदार है। वाकई बहुत सुन्दर गीत हुआ है। बधाई कल्पना जी !
क्या अंतिम बंद में अर्पित की जगह अर्पण किया जा सकता है ? - देख लें

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