तुम पथिक, आए कहाँ से,
कौनसी मंज़िल पहुँचना?
इस शहर के रास्तों पर,
कुछ सँभलकर पाँव धरना।
बात कल की है, यहाँ पर,
कत्ल जीवित वन हुआ था।
जड़ मशीनें जी उठी थीं,
और जड़ जीवन हुआ था।
देख थी हैरान कुदरत,
सूर्य का बेवक्त ढलना।
जो युगों से थे खड़े
वे पेड़ धरती पर पड़े थे।
उस कुटिल तूफान से, तुम
पूछना कैसे लड़े थे।
याद होगा हर दिशा को,
डालियों का वो सिसकना।
घर बसे हैं अब जहाँ,
लाखों वहीं बेघर हुए थे।
बेरहम भूकम्प से सब,
बेवतन वनचर हुए थे।
खिलखिलाहट आज है, कल
था यहीं आहों का झरना।
हो सके, उनको चढ़ाना,
कुछ सुमन संकल्प करके।
कुछ वचन देकर निभाना,
पूर्ण काया-कल्प करके।
याद में उनकी पथिक! तुम
एक वन की नींव रखना।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी
इस चर्चा की सकारात्मकता को अनुमोदित करने के लिए आपका धन्यवाद
किसी भी विधा को intact रखना एक बढ़ी ज़िम्मेदारी है, और यदि जानकार ही खामोश रह जायेंगे तो विधा को आगे कौन बढ़ाएगा, उसके प्रारूप को जो गलत रूप में अपनाते हैं उन्हें सही कौन सिखाएगा.
"आज आधे से अधिक नवगीत लेखकों के कारण नवगीत का जितना नुकसान पहुँच रहा है, उतना नुकसान तो छंदमुक्त आंदोलन ने नहीं पहुँचाया है."................ आदरणीय नचिकेता जी के इस कथ्य की गहनता को अब मैं भी समझने लगी हूँ, नवगीत में गीत की अवधारणा तो वही है तो हमारे साहित्य की सदियों की परंपरा रही है नव्यता तो बस कथ्य में, बिम्बों में, चिंतन में, ऊर्जस्वी सकारात्मकता और प्रवाह में है. गीत के मूल विधान का पालन सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए.
दुःख होता है, जब जाने-माने स्थापित नवगीतकारों को अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गलत नवगीतों की वाहवाही कर आगे बढ़ जाते दखती हूँ... ये कैसा धोखा है जो वो स्वयं अपने साथ भी करते हैं, जिस रचनाकार की रचना है उसके साथ भी करते हैं और नवगीत विधा के साथ भी करते हैं..?
//अच्छे रचनाकारो पर न केवल अच्छा लिखने का दायित्व है बल्कि प्रयुक्त विधा को संयमित रखने तथा उसके अकादमी स्वरूप को भी सुदृढ़ करने का दायित्व है//............ काश सभी ये समझें और साहित्य-यज्ञ में अपनी आहुति पूरी निष्ठा से दें.
सादर.
आदरणीय, मैं आपके साहित्य को समर्पित भावों का पूर्ण रूप से आदर करती हूँ। आपके सब्र को हृदय से नमन। मुझे रचना कर्म से इतना गहरा लगाव है कि छोटी सी भूल भी अंतर को मथने लगती है। इस मंच के संचालकों का स्नेह और सहयोग ही इस मंच को विशिष्टता प्रदान करता है और आज इस तरह के समूह गिनती के ही हैं। फिर इतना ज्ञान हमें एक ही स्थान पर मिल जाए तो कहीं और झाँकने के बजाय अपनी कलम को गति देना ही वास्तविक साहित्य सेवा होगी।
वस्तुतः एक सीमा के बाद मैं कुछ कहने से बचता हूँ. ऐसा नेट पर गुजारे अपने अभी तक के अनुभवों के आधार पर ही किया है. कुछ अपनी व्यस्तता भी आड़े आती है.
अभी दोनों विदुषियों, आदरणीया कल्पनाजी और आदरणीया प्राचीजी, के मध्य जो सकारात्मक चर्चा चल रही है उससे एक बात तो अवश्य उभर आयी है कि रचनाकर्म का दायित्व अनमने से निबाहे जाने के लिए नहीं है. इसी से इसे धर्म की संज्ञा मिली है.
दूसरे, यह मंच अपने उद्येश्य को एक ओर रखे, जो सीखने-सिखाने को प्रमुख रूप से रेखांकित करता है, हर समय नये सदस्यों को स्वीकारता है जो साहित्यकर्म के क्षेत्र में या तो एकदम से कोरे हैं या कई-कई ब्लॉग या साइट पर तथाकथित रूप से खूब ’वाह-वाहियाँ’ बटोर कर आये हैं. जिसमें, कहना न होगा, कि अधिकतर वाहवाहियाँ झूठी, मुखापेक्षी या अनमने में बिना रचना पढ़े दी गयी होती हैं. या, रचना के एक या कुछ बन्द को कॉपी-पेस्ट कर एक अतिरेक पूर्ण शब्द वाऽऽऽऽऽह के साथ उद्धृत होती है. इससे रचनाकर को छोड़िये खुद रचना का कितना नुकसान हो रहा है, इस विधा की कितनी तौहीन हो रही है, इस पर न सोचने की किसी को पड़ी है न ऐसा माहौल कोई पसंद कर रहा है.
नवगीत की दुनिया के प्रमुख जनवादी गीतकार और धुरंधर समीक्षक आदरणीय नचिकेताजी को मैं उद्धृत करना आवश्यक समझता हूँ, "आज आधे से अधिक नवगीत लेखकों के कारण नवगीत का जितना नुकसान पहुँच रहा है, उतना नुकसान तो छंदमुक्त आंदोलन ने नहीं पहुँचाया है. पचास के दशक से चल ही विधा आज तक यदि साहित्य के क्षेत्र में चलताऊ बनी है तो उसका मुख्य कारण इसके लेखकों के द्वारा गीतों की मूल विधात्मक नियमों से समझौता करना ही है."
कहना न होगा, आदरणीय नचिकेताजी किस समझौते की बात कर रहे हैं. और अपना यह मंच कितनी शिद्दत से इन्हीं भावों के परिप्रेक्ष्य में ’सीखने-सिखाने’ के दायित्व को निभा रहा है.
हम अवश्य सोचें कि हम लिख क्यों रहे हैं. यह भी, कि हम किसी रचना को कितना समझते और कितना मान देते हैं.
अच्छे रचनाकारो पर न केवल अच्छा लिखने का दायित्व है बल्कि प्रयुक्त विधा को संयमित रखने तथा उसके अकादमी स्वरूप को भी सुदृढ़ करने का दायित्व है. अतः समीक्षक-पाठकों के सकारात्मक कहे को मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है.
सिर्फ़ ’वाऽऽह’ करते पाठकों की ही अपेक्षा किसी लेखक के कार्य को सतही तो रखती ही है प्रयुक्त विधा के प्रति भी अन्याय करती है.
सादर
यह तो सचमुच बड़ी गड़बड़ी है, मैंने मात्राएँ गिनी ही नहीं। लय के आधार पर ही पूरी रचना लिख ली आपने ध्यान आकर्षित किया। फिर से संशोधन करना ही पड़ेगा। बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीया कल्पना जी,
मेरा इशारा आख़िरी बंद की तरफ था ..देखिये
2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
हो सके, उन को चढ़ाना, कुछ सुमन सं कल्प के।
कुछ वचन दे कर निभाना, पूर्ण काया- कल्प के।
जबकि अन्य बन्दों में
2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 ....लिया गया है
बात कल की है, यहाँ पर, कत्ल जीवित वन हुआ था।
जड़ मशीनें जी उठी थीं, और जड़ जी वन हुआ था।
इस प्रकार प्रति पंक्ति 14+14 =28 मात्राएँ हैं लेकिन अंतिम बंद में 14+12 =26 हे मात्राएँ हो रही हैं.
अब, शायद मैं स्पष्ट कर पायी..
सादर.
आदरणीया, उस पंक्ति पर मैं भी संतुष्ट नहीं हूँ, अब तक कोई सटीक शब्द नहीं मिला। सोचती हूँ कि यह रचना पेड़ों के कटने से होने वाले नुकसान पर आधारित है, तो अंत में अभय वन के स्थान पर एक वन कर देने से लय ठीक हो जाएगीऔर संदेश भी वही रहेगा। आपने भी इसी तरफ इशारा किया है, मेरी रचना को इतना समय देने के लिए आपका पुनःधन्यवाद।
आदरणीया कल्पना जी
//इस रचना पर कितनी मेहनत की है, यह मैं ही जानती हूँ//..............
इसीलिये तो साहित्य एक साधना है :))
बेशक आपने इस रचना में बहुत मेहनत की है... २१२२ पर साधने का प्रयत्न किया है जो निश्चय ही आसान नहीं...(जाने क्यों अंतिम बंद में अंत में २१२ ही लिया गया है, जिससे इसकी गेयता अन्य बन्दों की गेयता से कुछ भिन्न है)
//लेकिन इससे अधिक सामर्थ्य मुझमें नहीं है, इस तरह रचना ही निरस्त हो जाती//.......
इस भाव दशा से हम सभी कभी न कभी गुज़र चुके हैं. पर आपकी सामर्थ्य पर हम सभी आश्वस्त हैं तभी तो इस तरह के सुझाव देने की हिम्मत कर बैठते हैं :))
अन्यथा यूँ ही वाह-वाही कर गुज़र जाने से आसान तो किसी भी पाठक के लिए कुछ भी नहीं.
कहे को मान देने के लिए आपका सादर आभार आदरणीया.
हम सभी समवेत सीखते चलें, अपना रचनाकर्म और प्रगाढ़ करते चलें यही मंगलकामनाएं हैं
सादर.
आदरणीय रमेश जी, सादर धन्यवाद
आदरणीया सावित्री जी, प्रोत्साहित करने के लिए हार्दिक आभार
आदरणीया प्राची जी,'कुटिल तूफान'' और 'बेरहम भूकंप' शब्द पेड़ों के कटने के बिम्ब रूप में ही लिया है जो आरंभ में ही जड़ मशीनें जी उठीं थीं (पेड़ काट गिराने के यंत्र) में स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है।
जो युगों से थे खड़े
वे पेड़ धरती पर पड़े थे।...ये शब्द भी इसी तरफ इशारा कर रहे हैं। और अंत में भी यही कहा है - अभय वन की नींव रखना
और आपने समांतता के बारे में कहा है, यह मानती हूँ कि कुछ शब्द कर्ण प्रिय नहीं हैं लेकिन मैं ऐसे शब्दों से भी बचती हूँ जिन्हें मूल से ही बदल दिया जाता है और लघु को गुरु, गुरु को लघु बना दिया जाता है। नवगीत में इतनी बारीकी देखें तो भाव या शब्द आदि से समझौता करना पड़ता है। इस रचना पर कितनी मेहनत की है, यह मैं ही जानती हूँ। जो बातें आपने या आदरणीय सौरभ जी ने कहीं उनसे सहमत ज़रूर हूँ लेकिन इससे अधिक सामर्थ्य मुझमें नहीं है, इस तरह रचना ही निरस्त हो जाती। आपको भाव पसंद आए इसके लिए हार्दिक आभार। सादर
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