सर्द हवा ने बिस्तर बाँधा,
दिवस हो चले कोमल-कोमल।
सूरज ने कुहरे को निगला।
ताप बढ़ा, कुछ पारा उछला।
हिमगिरि पिघले, सागर सँभले,
निरख नदी, बढ़ चली चंचला।
खुली धूप से खिलीं वादियाँ,
लगे झूमने निर्झर कल-कल।
नगमें सुना रही फुलवारी
गूँज उठी भोली किलकारी
खिलती कलियाँ देख-देखकर
भँवरों पर छा गई खुमारी।
देख तितलियाँ, उड़ती चिड़ियाँ,
मुस्कानों से महक रहे पल।
अमराई जो कल तक पल-छिन
काट रही थी बनकर जोगन,
मौसम के इस नए रूप से।
आतुर है बनने को दुल्हन।
मन-आँगन में नृत्य कर रहे,
मोर, पपीहे, कोयल, बुलबुल।
मौलिक व अप्रकाशित
---कल्पना रामानी
Comment
आदरणीय सौरभ जी, अब क्या कहूँ! यहाँ का मौसम ही ऐसा है तो भाव भी वैसे ही जन्म लेंगे ना। फिर भी गीत पढ़ ल्या तो कुछ कोमलता का अहसास हुआ ही होगा।
सादर धन्यवाद
सादर धन्यवाद राम शिरोमणि जी
एक डेढ़ महीने पहले की रचना है ये आदरणीया. फिलहाल तो कुल्फ़ी ही जम रही है अपनी. :-)))
बधाई हो..
आदरणीया कल्पना रमानी जी,बहुत ही प्यारा नवगीत //। हार्दिक बधाई आपको
सादर धन्यवाद आदरणीय आशुतोष जी
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय अरुण अनंत जी
प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार आदरणीय अजय शर्मा जी
आदरणीय,योगराज जी , आपकी प्रशंसात्मक टिप्पणी से अभिभूत हूँ। हृदय से धन्यवाद
रचना को आपका स्नेह और सम्मान मिला, हार्दिक प्रसन्नता हुई। सादर धन्यवाद आपका आदरणीय
अजय अज्ञात जी
खिलती कलियाँ देख-देखकर
भँवरों पर छा गई खुमारी।
सूरज ने कुहरे को निगला।
ताप बढ़ा, कुछ पारा उछला।..बहतरीन नव गीत ..कल पढ़ा था लेकिन दिल को छो लेने वाले इस गीत के निमंत्रण पुनः आपके ब्लॉग तक ले आया ...पुनः बधाई के साथ
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