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"मास्टरजी तुम्हारा काम बच्चो को पढ़ाना है, इन छोरो के साथ नेतागिरी करना नही।" चौधरी भान सिंह के बेटे की आवाज सुनकर नारेबाजी करते नौजवान कुछ क्षण के लिये शांत हो गये।
गाँव मे नशे के खिलाफ खड़े होने वाले कुछ नौजवानो के साथ आ मिले दो पीढ़ियों से गाँव में मास्टरी कर रहे काशीनाथजी ने उसे किनारे किया और पीछे खड़े भानसिह से मुस्कराकर बोले। "चौधरी साहब। नशाखोरी की लत गाँव के बच्चो को निक्कमा बना रही है, हमारा फर्ज बनता है कि हम इस जंग में इन नौजवानो का साथ दे।"
"मास्टरजी। अपना फर्ज तो तुम कभी का पूरा कर चुके, ये तो इनके संस्कार है जो इन्हे इस गंदगी मे ले जाते है।" चौधरी साहब ने बेटे से मौन सहमति जताते हुये तंज भरे स्वर में कहा। काशीनाथजी बाप और बेटे पर गहरी नजर डालते हुये बोले। "चौधरी साहब। उन बच्चो का तो पता नही, लेकिन मुझे लगता है कि मेरी 'मास्टरी' में और आपके संस्कारो में जरूर कमी रह गयी है।
उनकी आँखे झुक चूकी थी और नौजवानो की नारे बाजी फिर शुरू हो गयी थी।
'विरेन्दर वीर मेहता' (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Shyam Narain Verma on April 7, 2015 at 10:10am
बहुत बढ़िया कहानी , हार्दिक बधाई आपको
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 7, 2015 at 9:45am

वाह! शानदार अभिवयक्ति लिए हुए लघुकथा!मुबारकबाद!

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