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ग़ज़ल ( पत्थर निकला)

ग़ज़ल (पत्थर निकला ) -------------------------

- 2122 ---1122 ---1122 --22

मेरि बर्बाद मुहब्बत का  ये   मंज़र    निकला  /

 जिसको उल्फत का ख़ुदा समझा वो पत्थर निकला /

दिल को तस्कीन तो हासिल हुई हमदर्दी   से

पर निगाहों  से नहीं  ग़म का समुन्दर  निकला /

ज़ुल्म ने जब भी ज़माने में उठाया है सर

लेके ख़ुद्दार क़लम अपना सुख़नवर   निकला /

नीम शब मिलने की तदबीर भी बेकार गयी

सुबह होते ही गली कूचे में महशर  निकला /

यूँ ही दीवार खड़ी तो न हुई है  शक की

जो था क़ासिद वो किसी और का मुखबर निकला /

लग रहा है ये ख़ुशी रूठ गयी है मुझ से

वक़्ते दीदार रुखे  यार भी मुज़्तर  निकला /

खुल गया वक़्ते नज़अ राज़े मुहब्बत आख़िर

लब से तस्दीक़ मेरे जैसे ही  दिलबर निकला /

(मौलिक व अप्रकाशित )    

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Comment by Ravi Shukla on February 1, 2016 at 11:13am

आदरणीय तस्‍दीक अहमद जी अच्‍छी ग़ज़ल कही है आपने शेर दर शेर बधाई हाजिर है वक्‍ते नजअ का मानी भी बता दें तो उसके शब्‍दार्थ तक भी हम पहंच जाएगे । एक बात और हमारे दिमाग में आ रही है मार्ग दर्शन निवेदित है दूसरे शेर में निगाहो में समन्‍दर समाने  की बजाय हमें आखों में समन्‍दर समाने की कैफियत ज्‍यादा समझ आती है । ( पर न आंखों से मेरे ग़म का समन्‍दर निकला ) सादर

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