ग़ज़ल ( निभा रहे हैं )
12122 ----12122)
फरेब उल्फ़त में खा रहे हैं /
सितमगरों से निभा रहे हैं /
घटाएं हों क्यों न पानि पानी
वो छत पे ज़ुल्फ़ें सुखा रहे हैं /
हुई है मुद्दत ये सुनते सुनते
वो मुझको अपना बना रहे हैं /
शराब ख़ोरी तो है बहाना
किसी को दिलसे भुला रहे हैं /
लगाके इल्ज़ाम दूसरों पर
वो अपनी ग़लती छुपा रहे हैं /
मेरे लिए बज़्म में वो आये
मगर सभी फ़ैज़ पा रहे हैं /
बुरा हो तस्दीक़ मुफ़लिसी का
वो हम से दामन छुड़ा रहे हैं /
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
जनाब लक्ष्मण धामी साहिब , ग़ज़ल पसंद करने और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , मेहरबानी
जनाब केवल प्रसाद साहिब , ग़ज़ल पसंद करने और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , मेहरबानी
आ0 भाई तस्दीक अहमद जी सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
जनाब तश्दीक भाई जी, शानदार नफासत से भरपूर इस वज़नी गज़ल के लिये दाद कुबूल फरमाएं, सादर
जनाब शेख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब , हिम्मत से लबरेज़ कमेंट्स और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ,महरबानी
जनाब नीलेश नूर साहिब , हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ,महरबानी
वाह ..बहुत खूब
मोहतरमा राहिला साहिबा , ग़ज़ल पसंद करने और हौसलाअफजाई का तहेदिल से शुक्रिया , महरबानी
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