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"एक और वार" - [लघु-कथा] (19)

हल्की 'टप्प' की आवाज़ के साथ स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर दो बूँदें गिरीं । एक लम्बी साँस लेकर पश्चाताप और आक्रोश की ज्वाला फिर भड़क उठी। यह वही तस्वीर है न, जो शालिनी के बेहद क़रीबी 'दोस्त' ने ली थी, उस दिन मोबाइल पर।फोटो लेते समय ही उसकी आँखें फटी की फटी सी रह गयीं थीं। उस छिछोरे के हाव-भाव ही संदेहास्पद थे। शालिनी ने तो उसे जीन्स या शोर्ट्स पहनकर चलने को कहा था , लेकिन वह सलवार सूट पहन कर ही उस 'आत्म-रक्षा प्रशिक्षण कैम्प' में गई थी। शालिनी का कुशल व्यवहार उसे पसंद था, लेकिन वह समझ न सकी कि वह तो अपने नारी-सुरक्षा-चक्र और सुरक्षा नियमों की सीमाएँ और वर्जनायें कब की तोड़ चुकी थी और उसे भी कहीं धकेल सकती थी।
कहने को तो वह था "आत्मा-सुरक्षा-प्रशिक्षण शिविर", लेकिन उसके लिए तो वह 'तलवार से सलवार तक' तक का एक वहशी कैम्प था। बहुत कम संख्या में आये कैन्डीडेट्स देखकर काश वह अपनी माँ के बताए सुरक्षा नियमों पर चलती।
आँखों के आँसू पोंछकर उसने फिर एक लम्बी साँस ली- "ओह शालिनी, नारी ही नारी की दुश्मन इसी तरह तो होती है।"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2017 at 3:06am
मेरी इस ब्लोग-पोस्ट पर समय देने एवं प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय कान्ता राय जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2017 at 3:02am
मेरी इस ब्लोग-पोस्ट पर समय देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय कान्ता राय जी।
Comment by kanta roy on October 22, 2015 at 7:15am
बढिया , नारी के संकुचित मनोदशा को सचेत करती हुई एक सार्थक संदेश रोपित हुई है कथा में । बधाई आदरणीय शहज़ाद जी इस लघुकथा के लिए ।

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