विश्व पुस्तक मेला-2015
मेट्रो की घड़घड़ाहट
और ज़िंदगी की फड़फड़ाहट के बीच
कुछ शब्द उभरकर आते हैं
जब-
वरिष्ठ नागरिकों के लिए
आरक्षित आसन पर
नए युग का प्रेमी युगल
चुहल करता है
और-
अतीत की झुर्रियों का फ़ेशियल लिए
लड़खड़ाती हड्डियों का
बेचारा ढाँचा
अवज्ञा की उंगली पकड़कर
अपने गौरवमय यौवन का
सौरभ लेता हुआ
कुछ पल के लिए खो जाता है;
मेट्रो की घड़घड़ाहट थमने लगती है
हड्डियों का ढाँचा
हड़बड़ाहट में चौकन्ना होता है,
उभरते हुए शब्दों को सुनता है,
फिर,
धूप-छाँव की तरह विलीन हो जाता है
ज़िंदगी के रेले में-
वह जा रहा है,
विश्व पुस्तक मेले में.
(2)
मंडी हाऊस से प्रगति मैदान तक
प्रगति की दौड़ में
हाँफती ज़िंदगी-
कार-ऑटो और बस की तीव्र गति के बीच
नए शब्द उभरते हैं,
हड्डियों का ढाँचा
उन्हें समझने की कोशिश में
एक युग बिता देता है.
(3)
अंतत:,
प्रगति मैदान –
गहरी चुप्पी और नि:शब्द शब्दों के बीच
कसमसाती ज़िंदगी-
पेड़ों से लटके बैनर,
खम्भों पर टँगे हुए पोस्टरों से
वे उम्मीदें लेकर झाँक रहे हैं
वे, जिन्हें हम
ऐसे ही किसी त्योहारी मौके पर
पोशाकी सम्भ्रम के विभ्रम में डाल देते हैं-
हिटलर से लेकर स्वामी विवेकानंद
कालिदास से लेकर दुश्यंत कुमार
वाणभट्ट से लेकर कल्पना चावला
या फिर
चाणक्य से लेकर नरेंद्र मोदी;
न जाने कितने अजस्र नाम
कितने जाने-अनजाने चेहरे-
हड्डियों का ढाँचा थक रहा है.
वह ध्यान से सुनता है
उन नि:शब्द शब्दों के गुंजन को
जिन्हें आत्मसात कर प्रशांति मिलती है;
उसके आसपास
डोसा-चाट-पित्ज़ा की चीख-पुकार लिए
एक बड़ा सा झमेला है,
फिर भी वह अकेला है-
यह विश्व पुस्तक मेला है
यह विश्व पुस्तक मेला है.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना – नई दिल्ली 18.02.2015)
Comment
या फिर
चाणक्य से लेकर नरेंद्र मोदी;
न जाने कितने अजस्र नाम
कितने जाने-अनजाने चेहरे-
हड्डियों का ढाँचा थक रहा है.
वह ध्यान से सुनता है
उन नि:शब्द शब्दों के गुंजन को
जिन्हें आत्मसात कर प्रशांति मिलती है;
उसके आसपास
डोसा-चाट-पित्ज़ा की चीख-पुकार लिए
एक बड़ा सा झमेला है,
फिर भी वह अकेला है-
यह विश्व पुस्तक मेला है
यह विश्व पुस्तक मेला है.
निःशब्द हूँ आपकी लेखनी और उससे निखरी एक सच्चाई पर … इस सुंदर विषय को बहुत ही सुंदर शब्दों से अपने चित्रित किया है .... इस प्रवाहमयी प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय।
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर प्रेरणा मिलती है जिसके लिए सदा आपका आभारी रहूंगा. जी, पिछले 30 वर्षों में कम से कम सोलह-सत्रह बार मैंने यह मेला देखा है और समय के साथ इसके बदलते अंदाज़ भी देखे हैं. जैसा कि आपने कहा एक नियम के वशीभूत यह मेला लगता है...फिर भी लगता तो है...कुछ तो अवश्य हम जैसे पिपासुओं को मिल ही जाता है. मेट्रो का अनुभव अप्रिय होते हुए भी शिक्षाप्रद है...किसके लिए.... यह सोचने की बात है. सादर.
भाई पवन कुमार जी, हार्दिक आभार. कभी अवसर मिले तो यह मेला अवश्य देखियेगा. हर वर्ष 14 फरवरी से 22 फरवरीतक दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित किया जाता है.
//निश्चय ही वह मेला और वह परिवेश धन्य है जिसने आपसे एक नहीं तीन-तीन रचनाये लिखवाई// आदरणीय गोपाल नारायन जी आपकी इस उक्ति को पढ़कर बरबस हँसी आ गयी क्योंकि और कोई समझे न समझे मैं जानता हूँ आप क्या कहना चाहते हैं. आपने मेरी रचना को इतना समय दिया यह उसकी स्वीकृति है, उसका सौभाग्य है. आपका हार्दिक आभार.
आदरणीय खुर्शीद साहब, बड़ी खुशी होती अगर पुस्तक मेले में आपसे मुलाक़ात हो सकती. इंडिया गेट से प्रगति मैदान बहुत दूर तो नहीं है...हाँ दिल्ली शहर का अनुभव न होने से शाम की भीड़ में खुद को सँभालना आसान काम नहीं है. 17 को ही सुबह वहाँ नवगीत पर एक यादगार परिचर्चा थी जिसमें आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी, आ. सौरभ पाण्डे जी सहित कई विद्वानों ने भाग लिया तथा श्रोता भी उसमें शामिल हुए.
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी, आपका हार्दिक आभार.
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