अक्सर देखा जाता है कि जब कोई उल्लेखनीय कार्य होता है तो उसका श्रेय लेने की होड़ मच जाती है और स्थिति मारामारी की बन जाती है। श्रेयमिजाजी लोग खास मिसाल पेश कर लेते हैं, तब वह इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने भी उतारू हो जाता है। भले ही वह किसी भी रूप में हों ? आज जहां देखें वहां, केवल श्रेय लेने की होड़ दिखती है। ऐसा लगता है, जैसे गली-गली में ‘श्रेय की दुकान’ खुल गई है और वहां से जो जब चाहे, तब ‘श्रेय’ खरीदकर ले लाए। जैसे, बाजार से हम सेब खरीद कर ले आते हैं। फिर अपना एकाधिकार जमाने में उसे कहां देर लग सकती है ?
श्रेय लेने की महारथी होना भी बड़ी बात है, क्योंकि इसे उस समय ली जाती है, जब खुद के लिए उपलब्धि या महानता की बात हो। बाकी समय, यही श्रेय कौड़ी काम की नहीं होती ? हद तो तब हो जाती है, जब ‘श्रेय’ को हथियाने की कोशिश की जाती है। कोई श्रेय दें या न दें, मगर मन किया तो खुद ही ‘श्रेय’ की मशाल लेकर निकल पड़े, गलियों में और फिर थपथपाने लगे अपनी पीठ। ऐसा नजारा मुझे लगता है, आपने भी कहीं न कहीं जरूर देखा होगा, क्योंकि श्रेय लेने का कीड़ा भी उपलब्घि के नाम पर रेवड़ी बटोरने वाले को ही काटा रहता है तथा उसके मुंह से बस ‘श्रेय’ पाने के शब्द निकलते हैं।
आज हालात यहां तक आ गए हैं कि लोगों में मामूली बात पर भी श्रेय लेने होड़ नजर आ रही है। जब दो पियक्कड़ यह कहते फिरे कि किसने, ज्यादा पी रखी है और इस बात पर झगड़ा हो तो, ‘श्रेय’ के शुरूरी अंदाज को समझा जा सकता है।
हमारे देश के नेता भी श्रेय लेने में माहिर नजर आते हैं। जब देखते हैं कि लोहा गरम है, उसी समय दे मारते हैं, श्रेय का हथौड़ा और जीत लेते हैं, श्रेय की बाजी। जनता तो बेचारी है ही, उसे बस इतनी बात समझ में आती है कि नेता जो मंच से कह दे, वही सही है। परदे के पीछे जो होता है, उसे वह कैसे समझ सकती है ? यहां करता कोई है और भरता कोई है ? बातों-बातों में नेता झगड़ते रहते हैं और श्रेय लेने की बाजीगरी साबित करते रहते हैं, मगर इस राजनीति के बंद सर्कस में ‘श्रेय’ की बयार बहती है, उसमें कोई नहीं बहता, सिवाय अवाम के।
वैसे मौका आने पर यही बाजीगर कब पलटी मार ले, कह नहीं सकते। अब देखिए, महंगाई को ही। महंगाई बेचारी डायन बन बैठी है और जनता बेबस होकर रह गई है ? सरकार केवल यही दंभ भर रही है, बस अब कुछ माह ही...। ऐसे मसलों में श्रेय का शुरूर नेताओं के दिमाग से गायब हो जाता है। मेरे मुताबिक यही राजनीति है, जिसे कोई समझ न पाए और हमेशा घनचक्कर बन बैठे रहंे और नेता, वोट की नाव में अपनी नोट की गंगा बहाते रहे। हालांकि, नोटों की गंगा बहाना भी शुरूर है, मगर यहां कोई किसी को श्रेय नहीं देता कि उसकी तिजोरी को किसने, कितनी भरी है ?
राजकुमार साहू
लेखक जांजगीर, छत्तीसगढ़ में इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकार हैं। पिछले दस बरसों से पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े हुए हैं तथा स्वतंत्र लेखक, व्यंग्यकार तथा ब्लॉगर हैं।
जांजगीर, छत्तीसगढ़
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