छंदमुक्त काव्य
जिंदगी से जिंदगी लड़ने लगी है
आदमी को आदमी की शक्ल
अब क्यूँ इस तरह अखरने लगी है //
आँख में आँख का तिनका चुभेगा
बात ये जिसने कही सही ही कही है //
आँख में अब तरक्कीयां चुभेंगीं तुम्हारी
ये बात अब मुझको बेजा लगने लगी है //
तेरी मेरी इस जात में फ़र्क़ क्या है
इंसानियत इंसानियत से ये कहने लगी है //
तू है गोरा मैं क्यूँ काला मैं हुँ सूंदर तू है भद्दा
क़ाबलियत का पुलंन्दा या नाकारा //
छोटी छोटी बात पर आज तलवार क्यूँ
अब हर जगह हर किसी में तनने लगी है //
जिसको देखो आजकल है वही
डूबा हुआ नफरत के गुरुर में
चार पैसे घूमता है लेके सुरूर में //
फिर वक्त के हाथों क्यों हवा निकली हुई है //
जिंदगी से जिंदगी लड़ने लगी है
आदमी को आदमी की शक्ल
अब क्यूँ इस तरह अखरने लगी है //
मैं चला उस रास्ते पर जो मुझे आया समझ //
मैं चला उस रास्ते पर जो मुझे आया समझ //
क्या उखाड़ा देख तेरा ये बता मुझको जजख़ //
शांति मेरी जिंदगी की अब भला बस, बेबस हुई
कद्रदानी आपसी इस कदर भौचक्क हुई //
आपसी रंजिश में पड़ोसी, पडोसी लड़ पड़े
दुश्मनी इसे ही देख, भर भर पेट ख़ुशी हुई //
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जनाब डॉ. अरुण कुमार शास्त्री जी आदाब, सुंदर रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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