वो मुझसे दूर होती गई
और मैं देख्ता रहा चुपचाप
कुछ कर न सका
दुख की सीमा मत पूंछो
कितना कम्मपित था हृदय अरे
मन भीषण सन्ताप से पीडित था
कुछ कर न सका
कुछ कर न सका हे नाथ
वो मुझसे दूर होती गई
और मैं देख्ता रहा चुपचाप
मानव हृदय भी कैसा है
कुछ सोच रहा कुछ होता है
मानव हृदय भी कैसा है
कुछ सोच रहा कुछ होता है
बस में इसके कुछ भी तो नहीं
बस पडा पडा ये रोता है
वो दूर गई जाती ही रही…
Added by DR ARUN KUMAR SHASTRI on April 10, 2023 at 1:30am — No Comments
तेरे आकर्षण का पल पल प्रतिकर्ष सताता है
सामजिक ताना बाना मिरी उलझन बढ़ाता है //
नदिया के पास जाऊं तो शीतल हो जाऊं
साथ दो अगर तो मैं मुस्कान बन जाऊं //
आकर्षक सा छद्म आव्हान मुझे बुलाता है //
सामजिक ताना बाना मिरी उलझन बढ़ाता है //
तुमसे कहने का मैं कोई मौका न छोड़ता
बस एक इशारा मिलता तो ही तो बोलता //
ऊहा पोह के सागर में अब गोता खाता हूँ
सामजिक ताना बाना मिरी उलझन बढ़ाता है //
दर्द की बात न करूंगा दर्द अब बेमानी हुआ
चाय…
ContinueAdded by DR ARUN KUMAR SHASTRI on February 2, 2021 at 4:45pm — 2 Comments
वक़्त मिलता है कहाँ
आज के मौसुल में
रक़ीबा दर - ब - दर
डोलने का हुनर मंद है
ये ख़ाक सार
इक अदद पेट ही है
जिसने न जाने कितनी
जिंदगियां लीली है
तुखंम उस पर कभी भरता नहीं
हर वक्त सुरसा सा
मुँह खोल के रखता है
न जाने किस कदर
इसमें ख़ज़ीली हैं।
ईंते ख़ाबां मुलम्मा कौन सा
इस पर चढ़ा होगा
दिखाई भी तो नहीं देता
मगर इक बात मुझको
इसके जानिब ये ज़रुर कहनी है।
अगरचे ये नहीं होता
बा कसम ये दुनिया नहीं होती
ये जो…
Added by DR ARUN KUMAR SHASTRI on February 2, 2021 at 4:30pm — No Comments
बेबाक दिलबरी का आलम न पूँछिये।
हम से मोहब्बत का बस हुनर सीखिये ।
दिल में लगी हो आग तो सेक लीजिये।
वरना लगा के दाग यूँ सितम न कीजिये।
तारीफ़ कीजिये या के…
ContinueAdded by DR ARUN KUMAR SHASTRI on January 25, 2021 at 10:00pm — 2 Comments
आणविक अनुप्रस्थान लघु कथा
वेदना से संवेदना हो तो मानवीय प्रकल्प उपजता है ऐसा मेरा सोचना था , तुम क्या सोचती हो इसी विषय में मैं अनभिज्ञ था , फिर एक दिन तुम बिना बताये कहीं चली गई। आभास था जाओगी और वो आभास प्रकटतः घटित भी हुआ। मुझे लेकिन इस अजन्मे विरह का अभ्यास किंचित न था सो मैं खिन्नता से खिसियानी बिल्ली अर्थात बिल्ले सा भ्रमित मन से एकांत में उतर गया। अब तक अपने…
Added by DR ARUN KUMAR SHASTRI on January 12, 2021 at 3:29am — No Comments
छंद मुक्त रचना
तिथि १२ जनवरी 21 समय 2.3 6 सुबह
डॉ अरुण कुमार शास्त्री / एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त
मिला है वक्त जो भी इस ज़हान में …
ContinueAdded by DR ARUN KUMAR SHASTRI on January 12, 2021 at 2:41am — No Comments
छंदमुक्त काव्य
जिंदगी से जिंदगी लड़ने लगी है
आदमी को आदमी की शक्ल
अब क्यूँ इस तरह अखरने लगी है //
आँख में आँख का तिनका…
ContinueAdded by DR ARUN KUMAR SHASTRI on November 19, 2020 at 1:00pm — 1 Comment
हठ धर्मिता तुम्हारी तुम ही धरो
मुझ से तो तुम बस सहयोग ही करो
मानव जनम मिला है तत्सम आचरण करो
हठ धर्मिता तुम्हारी तुम ही धरो
प्रेरणा न बन सको तो कोई फरक नही
लेकिन किसी सन्मार्ग में कंटक तो न बनो
हठ धर्मिता तुम्हारी तुम ही धरो
मै आज हूँ बस आज और अभी
गुजरे हुये पलो से मेरी तुलना तो न करो
भविष्य से मेरा कोई सम्बन्ध है कहा
वर्तमान को ही मैंने जीवन कहा
हठ धर्मिता तुम्हारी तुम ही धरो
मुझ से तो तुम बस सहयोग…
ContinueAdded by DR ARUN KUMAR SHASTRI on November 14, 2020 at 6:00pm — 6 Comments
जिस इश्क में दिल्लगी नही होती
उस इश्क की तो जानू उमर भी नही होती
सिलसिला साँसों का जिस रोज़ थम गया
रौशनी गई दिये से और प्यार मर गया
धड़कन में अगर खून की लाली नही होती
उस इश्क की तो जानू उमर भी नही होती
दिखावा प्यार का तुम खूब कर चुके
दे दे के तोहफे प्यार में मिरा घर भर चुके
सेंकडो तो आने जाने के बहाने कर चुके
जोश था जो मिलन का वो आज मर चुका
जिस इश्क में दिल्लगी नही…
ContinueAdded by DR ARUN KUMAR SHASTRI on September 19, 2020 at 3:00am — 2 Comments
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