तेरे आकर्षण का पल पल प्रतिकर्ष सताता है
सामजिक ताना बाना मिरी उलझन बढ़ाता है //
नदिया के पास जाऊं तो शीतल हो जाऊं
साथ दो अगर तो मैं मुस्कान बन जाऊं //
आकर्षक सा छद्म आव्हान मुझे बुलाता है //
सामजिक ताना बाना मिरी उलझन बढ़ाता है //
तुमसे कहने का मैं कोई मौका न छोड़ता
बस एक इशारा मिलता तो ही तो बोलता //
ऊहा पोह के सागर में अब गोता खाता हूँ
सामजिक ताना बाना मिरी उलझन बढ़ाता है //
दर्द की बात न करूंगा दर्द अब बेमानी हुआ
चाय की चुस्की में मैं इसको बिसराता हूँ //
तुम्हारा साथ पा जाऊँ खुदा से मिल जाऊं
सामजिक ताना बाना मिरी उलझन बढ़ाता है //
एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त [ काव्यात्मक नाम ]
डॉ अरुण कुमार शास्त्री [ सांसारिक नाम ]
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब डॉ.अरुण कुमार शास्त्री जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई अरुण जी, सादर अभिवादन । अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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