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वो मुझसे दूर होती गई
और मैं देख्ता रहा चुपचाप
कुछ कर न सका
दुख की सीमा मत पूंछो
कितना कम्मपित था हृदय अरे
मन भीषण सन्ताप से पीडित था
कुछ कर न सका
कुछ कर न सका हे नाथ
वो मुझसे दूर होती गई
और मैं देख्ता रहा चुपचाप
मानव हृदय भी कैसा है
कुछ सोच रहा कुछ होता है
मानव हृदय भी कैसा है
कुछ सोच रहा कुछ होता है
बस में इसके कुछ भी तो नहीं
बस पडा पडा ये रोता है
वो दूर गई जाती ही रही
कुछ कर न सका
कुछ कर न सका हे नाथ
शंकित मन से जब भी तुम
कोई कार्य करोगे ढीले मन से
तुम आधे अधूरे से होकर
क्या हो पाओगे कभी पूरे
क्युं कोस रहे निज क्षमता को
क्या ऐसे ही रह जाओगे
उठ कर आन्खों में आँख डाल
अपनी नियती से करो रार
भिड़ना सीखो तैय्यार रहो
दुविधा असुविधा से क्या डरना
और मरे हुओं का क्या मरना
निश्चय कर के झूझ पडो
जीत तुम्हारी ही होगी
जो चाहते हो शान्ति से रहना
तो लिख लो सदा
युद्ध के लिए तैय्यार रहो
वो मुझसे दूर होती गई
और मैं देख्ता रहा चुपचाप
कुछ कर न सका
दुख की सीमा मत पूंछो
कितना कम्मपित था हृदय अरे

मौलिक एवं अप्रकाशित

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