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नई सुबह का इन्तिज़ार
मुझे भी है.....
काले पीले पत्ते पेड़ों पर
सूखगए हैं, किसी नमी
आँखों में पानी नहीं है
हो गयी हैं निष्ठुर पीतल सी !
नई सुबह क्या बेहतर होगी
प्रश्न खड़ा है, मेरे सम्मुख
नये साल का मैं लिखूँ क्या
आमुख.......?
हर दिन एक नया दिन होता है
कल से आज सदा बेहतर होता है
निर्विवाद यह उक्ति अब तो
शरमाई सी अलग खड़ी है......!
नई सुबह का इन्तिज़ार भी
करना बेमानी है, यारो !
परिवेश जब इतना अंधकार मय है
पौ फटने पर नहीं बोली हैं चिड़िया
कोहरा-पाला नहीं छँटा है.....
सूरज भी नींद में डूबा है.....
नहीं कोई पनिहारिन घट पर',
नहीं कोई है नद- नाले तट पर 
नई सुबह क्या सुखकर होगी  !
अँधियारा पसरा है, पनघट
मन कृषक का भरमाया है,
और दृष्टि पर राहु की छाया....
अहंकार का परचम लहराया
शैतान-सर्प फिर उतरा पेड़ से',
हव्वा को उसने बहकाया
आदम का मन घबराया है....
अराजकता बनी खतरा है...
माहौल बना शातिराना है',
ऐसे में नई सुबह क्या होगी...।
माँ फिर फटी धोती मे होगी।

मौलिक एवम् अप्रकाशित
08-01-2021

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 9, 2021 at 7:31am

आ. भाई चेतन प्रकाश जी, सादर अभिवादन । वर्तमान परिप्रेक्ष में अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

कृपया ध्यान दे...

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